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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक (समणाउसो ) आयुष्मान् श्रमणो ! (मए खलु लोयं च अप्पाहट्टु पुक्खरिणी बुइया) मैंने अपनी इच्छा से मानकर इस लोक को पुष्करिणी कहा है (समणाउसो भए खलु अप्पाहट्टु कम्मं च से मए उदए बुइए) हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी कल्पना से विचार करके कर्म को इस पुष्करिणी का जल कहा है । ( समणाउसो ! मए खलु कामभोगे अप्पाट्टु च सेए बुइए ) आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी कल्पना से स्थिर करके कामभोग को पुष्करिणी का कीचड़ कहा है, (समणाउसो ! मए खलु अपाहट जाणवयं च ते बहवे पउमवरपोंडरीए बुइए ) आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी दृष्टि से चिन्तन करके आर्य देश के मनुष्यों तथा देशों (जनपदों) को पुष्करिणी के बहुत से कमल कहे हैं, ( समाउसो ! मए खलु अप्पाहट्टु रायाणं च से एगे महं पउमवरणोंडरीए बुइए ) आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी इच्छा से कल्पना करके उस पुष्करिणी का एक उत्तम श्वेतकमल राजा को कहा है । (समणाउसो ! मए खलु अप्पाहटटु अन्नउत्थिया य ते चत्तारि पुरिसजाया बुइया ) आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी दृष्टि से विचार करके अन्ययूथिकों को उस पुष्करिणी के कीचड़ में फँसे हुए वे चार पुरुष कहे हैं, (समणाउसो ! मए खलु अपाहट्टु धम्मं च से भिक्खु बुइए) हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी बुद्धि से कल्पना करके धर्म को वह भिक्षु बताया है, ( समणा उसो ! मए खलु अप्पाट्टु धम्मतित्थं च से तीरे बुइए) आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी कल्पना से मानकर धर्मतीर्थ को पुष्करिणी का तट बताया है, (समणाउसो ! मए खलु अप्पाहट् धम्मकहं से सद्द बुइए) आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी मान्यतानुसार धर्मकथा को वह शब्द कहा है । (समणाउसो ! मए खलु अप्पाहट्टु निव्वाणं च से उपाए बुइए) आयुमान् श्रमणो ! मैंने अपनी इच्छा से मानकर निर्वाण को उस कमल को बाहर निकलकर आना कहा है (समणाउसो ! मए खलु अप्वाहट्टु एवमेयं च से एवमेयं बुइए) हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने अपनी बुद्धि से कल्पना करके पूर्वोक्त इन सब पदार्थों को पूर्वोक्त पदार्थों के रूप में कहा है ।। ८ ।। व्याख्या Jain Education International दृष्टान्त का अर्थघटन पहले सूत्र से लेकर छठवें सूत तक पुष्करिणी और उससे सम्बन्धित पदार्थों के रूपक का पूर्वभाग दिया गया था, अब सातवें और आठवें सूत्र में इसी रूपक का उत्तर भाग दिया गया है । अर्थात् छह सूत्रों तक दृष्टान्त का निरूपण किया गया है । अब सातवें आठवें सूत्र में उन दृष्टान्तों के दान्ति की योजना की गई है । शास्त्रकार प्रत्येक दान्त का निरूपण भगवान् महावीर के श्रीमुख से 'समणाउसो' ( आयुमान् श्रमणो ) सम्बोधन करवाकर कराया है । २६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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