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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक मानलो, उस सारी पुष्करिणी के ठीक मध्य में उत्पन्न उन समस्त पुण्डरीकों ( पद्म कमलों) के बिल्कुल बीच में, सबका केन्द्ररूप, सारी बावड़ी का शिरोमणिरूप बहुत बड़ा सहस्रदल पुण्डरीक कमल हो, जिसे देखने के लिए दूर-दूर से दर्शक आते हों, जो देखने मात्र से दर्शक के चित्त में आल्हाद उत्पन्न करता हो, जिसके पत्त क्रमशः उभरे हुए हों, जो अपने तेज से चमकता हो, जो अपने सौन्दर्य एवं आकर्षण द्रष्टाओं को आकर्षित और प्रभावित कर देता हो भला ऐसा उत्तम और उन्नत पद्मवरपुण्डरीक किसका मन नहीं मोह लेगा ? सारांश कल्पना करो, संसारभर में प्रसिद्ध एक पुष्करिणी है, जो अत्यन्त सुन्दर एवं दर्शनीय है, उसमें स्थान-स्थान पर सुन्दर कमल खिले हैं । उस सारी पुष्करिणी ( बावड़ी ) के बीचोंबीच बहुत से पुण्डरीक नामक उत्तम श्वेतकमल खिले हुए हैं, वे भी अत्यन्त रमणीय और चित्ताकर्षक हैं । क्रमशः उभरे हुए, उन्नत और ऊँचाई पर स्थित हैं । उन सबके मध्य में एक सर्वश्रेष्ठ, भव्य, चित्तचमत्कारक, अत्यन्त चमकीला, जन- मन- नयनप्रभावक पद्मवरपुण्डरीक नामक श्रेष्ठ श्वेतकमल है । ६ ऐसा महान् श्वेत पुण्डरीक किस द्रष्टा को कैसे आकर्षित करता है तथा उसे देखकर कौन आसक्तिपूर्वक उसमें फँस जाता है, कौन व्यक्ति अनासक्त एवं निर्लिप्त रहकर निर्वाण प्राप्त कर लेता है ? इसे बताने के लिए इसी रूपक को शास्त्रकार विस्तृत करते हैं मुल पाठ अह पुरिसे पुरित्थिमाओ दिसाओ आगम्म तं पुक्खरिणीं तीसे पुक्खरिणीए तीरे ठिच्चा पासइ, तं महं एवं पउमवर पोंडरीयं अणुपुम्वुट्ठियं ऊसियं जाव पडिरुवं । तए णं से पुरिसे एवं वयासी - अहमंसि पुरिसे खेयस कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गइपरिक्कमण्णू अहमेयं परमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति कट्टु इइ बुबा से पुरिसे अभक्कमेतं पुक्खरिणीं, जावं जावं च णं अभिक्कमेइ तावं तावं च णं महंते उदए महंते से पहीणे तीरं अपत्ते पउभवरपोंडरीयं णो हव्वाए णो पाराए, अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि निसण्णे पढमे पुरिसजाए ॥ सू० २ ॥ अहावरे दोच्चे पुरिसजाए, अह पुरिसे दक्खिणाओ दिसाओ आगम्म तं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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