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________________ ४४६ सूत्रकृतांग सूत्र रहने वाले त्रस और स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं, तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है, क्योंकि त्रस जीवों की हिंसा का और स्थावर जीवों की अनर्थक हिंसा का वह त्यागी होता है । इसलिए भी उसका प्रत्याख्यान निविषय नहीं माना जा सकता। (७) इस सूत्र के सातवें भाग का आशय यह है कि श्रावक के द्वारा गृहीत क्षत्र-मर्यादा से बाहर रहने वाले त्रस और स्थावर प्राणी जब उसी मर्यादा के अन्दर रहने वाले त्रस प्राणियों में उत्पन्न होते हैं तब उनमें श्रावक का प्रत्याख्यान सार्थक होता है, क्योंकि उसने जीवनपर्यन्त त्रसहिंसा का प्रत्याख्यान किया है । इसलिए उसे निविषय कहना अन्याययुक्त है। (८) इस सूत्र के आठवें भाग का भाव यह है कि श्रावक के द्वारा ग्रहण की हुई क्षेत्र-सीमा से बाहर रहने वाले त्रस और स्थावर प्राणी, जब मर्यादित क्षेत्र के अन्दर रहने वाले स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं, तब वह उन्हें अनर्थदण्ड नहीं देता, क्योंकि उसके स्थावर जीवों को अनर्थदण्ड देने का त्याग है। इसलिए उसके प्रत्याख्यान को निविषय न्यायसंगत नहीं है। (8) इसके पश्चात् सूत्र के नौवें भाग का निष्कर्ष यह है कि श्रावक के द्वारा निश्चित की हुई क्षेत्र-मर्यादा से बाहर रहने वाले त्रस और स्थावर प्राणी जब मर्यादा से बाह्य देश में ही त्रस और स्थावर रूप में उत्पन्न होते हैं, तब उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है, क्योंकि त्रसवध को सर्वथा और स्थावरवध को निरर्थक रूप में करने का उसके प्रत्याख्यान होता है । इस सूत्र में जहाँ-जहाँ त्रस प्राणियों का उल्लेख है, वहाँ-वहाँ सर्वत्र व्रत ग्रहण के समय से लेकर मरणपर्यन्त उन प्राणियों को श्रावक दण्ड नहीं देता, यह आशय जानना चाहिए । जहाँ स्थावर पद का उल्लेख है, वहाँ श्रावक के द्वारा उन्हें अनर्थदण्ड देना वजित करना समझना चाहिए । ___ इस प्रकार अनेक दृष्टान्तों के द्वारा श्रावक के प्रत्याख्यान को सविषयक सिद्ध करने के लिए अब भगवान् गौतम स्वामी उदक निर्ग्रन्थ के प्रश्न को ही सर्वथा असंगत बताते हुए कहते हैं-हे उदक निर्ग्रन्थ ! अनन्त अतीत काल में ऐसा कभी नहीं हुआ, तथा अनागत अनन्तकाल में ऐसा कभी नहीं होगा, एवं वर्तमानकाल में ऐसा नहीं हो सकता है कि सभी त्रस प्राणी सर्वथा उच्छिन्न हो जाएँ और सभी स्थावर शरीर में जन्म ग्रहण कर लें, तथा ऐसा भी न हुआ, न होगा, और न है कि सभी स्थावर प्राणी सर्वथा उच्छिन्न हो जाएँ और सभी त्रसयोनि में जन्म ग्रहण कर लें। यद्यपि कभी त्रस प्राणी स्थावर होते है और स्थावर प्राणी कभी त्रस होते हैं, इस प्रकार इनका परस्पर संक्रमण अवश्य होता है परन्तु सब के सब त्रस स्थावर हो जाएँ या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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