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________________ ४४४ सूत्रकृतांग सूत्र छोड़कर (तत्थ आरेणं जे थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्ते तेसु पच्चायं ति) वहाँ जो समीपवर्ती (श्रावक द्वारा ग्रहण की हुई मर्यादा क्षेत्र के अन्तर्गत) स्थावर प्राणी हैं, जिनको श्रावक ने प्रयोजनवश दण्ड देना नहीं छोड़ा है और निष्प्रयोजन दण्ड देना छोड़ दिया है, उनमें उत्पन्न हो जाते हैं (हिं समणोवासगस्स अट्ठाए अणिक्खित्त अणट्ठाए णिक्खित्त) जिनको श्रमणोपासक प्रयोजनवश दण्ड देना नहीं छोड़ सका है और निष्प्रयोजन दण्ड देने का त्याग कर चुका है (जाव ते पाणावि जाव अयंपि भेदे से णो गेयाउए) चे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं, इसलिए श्रावक के व्रत को निविषय कहना अयोग्य है । (तत्थ जे ते तसथावरा पाणा परेणं हि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए दंडे णिक्खित्त) उस समय जो बस और स्थावर प्राणी श्रावक के द्वारा ग्रहण किये हुए देश परिमाण अर्थात् प्रत्याख्यान किये हुए क्षेत्र से बाहर के यानी अन्य देश में रहने वाले हैं, जिनको श्रावक ने व्रत ग्रहण करने के समय से आजीवन दण्ड देने का त्याग कर दिया है (ते तओ आउं पिप्पजहंति) बे अपनी आयु को छोड़ देते है, अर्थात् पूरी कर लेते हैं (विप्पजहिता ते तत्थं परेणं चेव) और आयु पूर्ण करके श्रावक द्वारा मर्यादित क्षेत्र से अन्य क्षेत्रवर्ती (जे तसथावरा पाणा) जो त्रस-स्थावर प्राणी हैं (जेहिं समणोवासगस्त आयाणसो आमरणंताए दंडे णिविखत्ते तेसु पच्चायंति) जिनको श्रावक ने व्रत-ग्रहण के समय से लेकर आयुपर्यन्त दण्ड देने का त्याग कर लिया है, उनमें उत्पन्न होते हैं (ोह समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ) उनमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान होता है (ते पाणा वि जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ) वे प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं इसलिए श्रावक के व्रत को निविषय कहना न्यायोचित नहीं है। (भगवं च णं उदाहु) भगवान गौतम स्वामी ने कहा-(णं एवं भूयं) पूर्व काल यानी भूतकाल में यह नहीं हुआ (णं एयं भवं) न अनागत काल यानी भविष्य काल में यह होगा (ण एवं भविस्संति) और न वर्तमान काल में यह होता है (जण्णं तसा पाणा वोच्छिजिहिति थावरा पाणा भविस्संति) कि त्रस प्राणी सर्वथा उच्छिन्न हो जायें और सबके सब स्थावर हो जायँ (थावरा पाणा वि वोच्छिजिहिति तसा पाणा भविस्संति) और त्रस प्राणो सर्वथा उच्छिन्न हो जायँ और सबके सव स्थावर हो जायें (अवोच्छिन्तेहिं तस थावरेहिं) त्रस और स्थावर प्राणियों के सर्वथा उच्छिन्न न होने पर (जण्णं तुम्भे अन्नो वा वदह) जैसा कि तुम तथा अन्य लोग कहते हैं कि (णत्थि णं से केइ परियाए जाव) कोई पर्याय नहीं है जिसमें श्रावक का सुप्रत्याख्यान हो (णो णयाउए भवइ) वह कथन न्यायोचित नहीं है । व्याख्या विभिन्न पहलुओं से श्रावक के प्रत्याख्यान की सार्थकता इस सूत्र में शास्त्रकार ने श्री गौतमस्वामी द्वारा उदक निर्ग्रन्थ के कथन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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