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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक जा, मेरे पास उड़ आ।" यों कहते ही वह कमल वहाँ से उठकर उस भिक्षु के पास आ गया। इस रूपक का परमार्थ सार बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं—यह संसार पुष्करिणी के समान है। इसमें कर्मरूपी पानी एवं काम-भोगरूपी कीचड़ भरा है । अनेक जनपद चारों ओर फैले हुए कमल के समान हैं । मध्य में स्थित पुण्डरीक राजा के समान है। पुष्करिणी में प्रविष्ट होने वाले चारों पुरुष अन्यतीथिकों के समान हैं। कुशल भिक्षु धर्म रूप है। किनारा धर्मतीर्थरूप है । भिक्षु द्वारा उच्चारित शब्द धर्मकथारूप हैं और पुण्डरीक कमल का उठना निर्वाण के समान है। उपर्युक्त चार पुरुषों में से पहला पुरुष तज्जीव-तच्छरीरवादी है। उसके मत से शरीर और जीव एक हैं, अभिन्न हैं। यह अनात्मवाद है। इसका दूसरा नाम नास्तिकवाद भी है। प्रस्तुत अध्ययन में इस वाद का वर्णन है। यह वर्णन सामञ्जफलसुत्त में निरूपित तथागत बुद्ध के समकालीन अजित केशकम्बल के उच्छेदवाद के वर्णन से हूबहू मिलता है। इतना ही नहीं, इनके शब्दों में भी समानता दिखायी देती है। दूसरा पुरुष पंचमहाभूतवादी है । उसके मतानुसार पाँच भूत ही यथार्थ हैं । उन्हीं से प्राणियों की उत्पत्ति होती है। तज्जीव-तच्छरीरवाद एवं पंचभूतवाद में अन्तर यह है कि प्रथम के मत से जीव और शरीर एक हैं, दोनों में कोई अन्तर नहीं है; जबकि दूसरे के मत से जीव की उत्पत्ति पंचमहाभूतों के सम्मिश्रण से शरीर के बनने पर होती है और शरीर के नष्ट होने के साथ ही जीव का भी नाश हो जाता है। पंचभूतवादी भी आचार-विचार में तज्जीव-तच्छरीरवादी से मिलते-जुलते हैं। पंचभूतवादी की चर्चा में आत्मषष्ठवादी के मत का भी उल्लेख किया गया है जो इन पंचमहाभूतों के अतिरिक्त छठे आत्म तत्त्व का भी अस्तित्व स्वीकार करता है। वृत्तिकार ने आत्मषष्ठवादी को सांख्यदर्शन बताया है। तीसरा पुरुष ईश्वरकारणवादी है जिसके मतानुसार यह लोक ईश्वरकृत है । अर्थात् संसार का कारण ईश्वर है । चौथा पुरुष नियतिवादी है। नियतिवाद का स्वरूप प्रथम श्रुतस्कन्ध के पहले अध्ययन के दूसरे उद्देशक के प्रारम्भ की तीन गाथाओं में बताया गया है। उसके मतानुसार जगत् की समस्त क्रियायें नियत हैं, अपरिवर्तनीय हैं। जो कार्य जिस रूप में नियत है, उसी रूप में वह पूर्ण होगा । उसमें कोई किसी प्रकार की तब्दीली नहीं कर सकता। सबसे अन्त में, जो सुविहित भिक्षु आता है, वह इन चारों से अलग किस्म का है । वह संसार को असार समझकर भिक्षु बनता है और धर्म का यथार्थ स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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