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________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय ४१३ प्रत्याख्यान सफल होता है। उस समय वे प्राणी होते ही नहीं हैं, जिनके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान नहीं होता। इस प्रकार यह श्रावक महान असकाय जीव की हिंसा से उपशान्त एवं निवृत्त होता है । अतः आप या दूसरों का यह कथन न्यायसंगत नहीं है कि ऐसा एक भी पर्याय नहीं है, जिसके विषय में श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान सफल हो सके । सारांश उदकपेढालपुत्र द्वारा श्रमणोपासक के त्रसजीवहिंसात्याग-विषयक प्रत्याख्यान पर यह आक्षेप लगाया गया कि यदि सभी त्रस जीव एक काल में स्थावर हो गये तो उसका यह प्रत्याख्यान असफल एवं निरर्थक हो जायगा। श्री गौतम स्वामी ने इसका स्पष्ट उत्तर दया कि सा कभी तीन काल में भी नहीं होता कि सभी त्रस जीव एक साथ स्थावर हो जाएँ, त्रस नाम का कोई प्राणी संसार में रहे ही नहीं। इसके अतिरिक्त तुम्हारे (उदक के) मतानुसार भी तो सभी जीवों को परिवर्तनशील मानकर सबके सब स्थावर त्रस बन जाएँगे तब श्रावक को अहिंसापालन करना अनिवार्य हो जाएगा। अत: त्रसजीव-विषयक अहिंसापालन का ब्रत कदापि निविषय नहीं होता। मूल पाठ भगवं च णं उदाह णियंठा खलु पूच्छिश्व्वा -आउसंतो नियंठा ! इह खलु संतेगइया मणुस्सा भवंति, तेसि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ-जे इमे मुंडे भवित्ता अगाराओ अगगारिय पव्वइए एएस च णं आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते, जे इमे अगारमावसंति, एएसि च णं आमरणंताए दंडे णो णिक्खत्ते, केई च णं समणा जाव वासाई चउपंचमाइं छठ्ठद्दसमाई अप्पयरो वा भुज्जयरो वा देसं दुईज्जित्ता अगारमावसेज्जा ? हंतावसेज्जा, तस्स णं गारत्थं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे भंगे भवइ ? णो इणठे समठे, एवमेव समणोवासगस्स वि तसेहि पाहि दंडे णिक्खित्ते, थावरेहि दंडे णो णिक्खित्ते, तस्स णं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चक्खाणे णो भंगे भवइ, से एवमायाणह ? णियंठा ! एवमाप्राणियव्वं ॥ भगवं च णं उदाहु णिठा खलु पुच्छियव्वा-आउसंतो नियंठा ! इह खलु गाहावइ वा गाहावइपुत्तो वा तहप्पगारेहि कुलेहि आगम्म धम्म सवणवत्तियं उवसंकमज्जा ? हंता उवसंकमज्जा, तेसि च णं तहप्पगाराणं धम्म आइक्खियत्वे ? हंता आइक्खियत्वे । कि ते तहप्पगारं धम्म सोच्चा णिसम्म एवं वएज्जा-इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुण्णं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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