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________________ ४०८ सूत्रकृतांग सूत्र ही है । इस प्रकार उस पुरुष को त्याग कराने वाले साधु को शेष प्राणियों के मारने का अनुमोदन नहीं होता, क्योंकि वह तो सभी के घात का त्याग कराना चाहता है, परन्तु जब वह पुरुष ऐसा करने के लिए तैयार नहीं है, तो जितने को वह छोड़े, उतने तो बचेंगे, यह आशय साधु का होता है। अतः उसे शेष प्राणियों के घात का अनुमोदन नहीं लगता है । यह ७५वें सूत्र का आशय है। पहले उदकपेढालपुत्र ने श्री गौतम स्वामी से पूछा था-कोई श्रावक त्रसजीवों के घात का त्याग करके भी स्थावरकाय में उत्पन्न हुए उसी त्रस प्राणी को मारता है तो उसका व्रत भंग क्यों नहीं हो सकता है ? जो मनुष्य नागरिक पुरुष की हत्या न करने की प्रतिज्ञा करके नगर से बाहर गए हुए उस नागरिक पुरुष की हत्या करता है तो उसकी प्रतिज्ञा जैसे भंग हो जाती है, उसी तरह त्रसकाय को न मारने की प्रतिज्ञा किया हुआ श्रावक यदि स्थावरकाय में गये हुए उस बस प्राणी का घात करता है तो उसकी प्रतिज्ञा भंग हो जाती है, ऐसा क्यों न माना जाए? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् गौतम स्वामी कहते हैं-हे उदक निर्ग्रन्थ ! जीव अपने कर्मों का फल भोगने के लिए जब त्रस पर्याय में आते हैं, तब उनकी त्रस संज्ञा होती है और वे जब अपने कर्मों का फल भोगने के लिए स्थावर पर्याय में आते हैं, तब उनकी स्थावर संज्ञा होती है । इस प्रकार जीव कभी त्रस पर्याय को छोड़कर स्थावर पर्याय को प्राप्त करते हैं, और कभी स्थावर पर्याय को छोड़ कर त्रस पर्याय को प्राप्त करते हैं । अतः जो श्रावक त्रस प्राणी को मारने का त्याग करता है, वह त्रस पर्याय में आए हुए जीव को मारने का ही त्याग करता है, परन्तु स्थावर पर्याय में आए हुए या भविष्य में आने वाले जीव के. घात का त्याग नहीं करता। इसलिए स्थावर पर्याय के घात से उसके पूर्वोक्त प्रत्याख्यान या व्रत का भंग क्योंकर हो सकता है ? क्योंकि स्थावर पर्याय के घात का त्याग उसने नहीं किया है । आपने जो नागरिक का दृष्टान्त देकर स्थावर पर्याय के घात से त्रस प्राणी के घात का त्याग करने वाले पुरुष की प्रतिज्ञा का भंग होना कहा है, बह भी अयुक्त है, क्योंकि नगरनिवासी पुरुष नगर से बाहर जाने पर भी नागरिक ही कहलाता है क्योंकि उसकी पर्याय बदली नहीं है। इसलिए उसका घात करने से नागरिक के घात का त्याग करने वाले व्यक्ति का व्रत भंग हो जाता है । परन्तु वह नागरिक यदि नगर में रहना बिल्कुल छोड़कर गाँव में रहने लग जाता है तो वह ग्रामीण कहलाने लगता है, उसकी नागरिक पर्याय भी बदल जाती है। ऐसी दशा में उसकी हिंसा से जैसे नागरिक को न मारने का व्रत ग्रहण किये हुए पुरुष का व्रत भंग नहीं होता, उसी तरह त्रस पर्याय को त्यागकर जो प्राणी स्थावर पर्याय में चला गया है, उसके घात से त्रस पर्याय के घात का त्याग किये हुए पुरुष की प्रतिज्ञा का भंग नहीं हो सकता क्योंकि स्थावर पर्याय के घात का त्याग उसने नहीं किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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