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________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय ४०७ विप्प जाहित्ता भुज्ज्जो परलोइयत्ताए पच्चायंति) और उस आयु को छोड़ कर फिर पारलौकिकरूप से त्रसभाव को प्राप्त करते हैं । (ते पाणा वि वुच्चंति, ते महाकाया ते चिरटिइया) वे जीव प्राणी भी कहलाते हैं, त्रस भी कहलाते हैं, और महान् काय वाले तथा चिरकाल तक स्थिति वाले भी होते हैं । सू० ७६ ॥ व्याख्या प्रश्न उदक निम्रन्थ के, उत्तर गौतम स्वामी के इन दोनों सूत्रों में पूर्वसूत्र में उक्त बस के अर्थ के सम्बन्ध में उदकपेढालपुत्र के प्रश्न और गौतम स्वामी के उत्तर अंकित किये गये हैं। उदकपेढालपुत्र निर्ग्रन्थ ने अपनी बात को पुष्ट करने हेतु पुनः भगवान् गौतम स्वामी से पूछा"आयुष्मन् गौतम ! आप किन जीवों को त्रस कहते हैं, क्या आप त्रस प्राणी को बस कहते हैं या अन्य किसी प्राणी को बस कहते हैं ? इसके उत्तर में भगवान् गौतम ने युक्तिपूर्वक कहा- देखो, उदक निर्ग्रन्थ ! आप लोग जिन्हें त्रसभूत कहते हैं, उन्हीं को हम त्रस कहते हैं, तथा हम जिन्हें त्रस कहते हैं, उन्हें ही आप लोग त्रसभूत कहते हैं। इन दोनों शब्दों के अर्थ में कोई अन्तर नहीं है । ये दोनों शब्द एकार्थक हैं । जो प्राणी वर्तमानकाल में त्रस हैं, उन्हीं का वाचक जैसे त्रसभूत पद है, उसी तरह त्रस पद भी है ; तथा जो प्राणी भूतकाल में त्रस थे और भविष्य में त्रस होने वाले हैं, उनका वाचक जैसे त्रसभूत पद नहीं है, उसी तरह त्रसपद भी नहीं हैं । ऐसी स्थिति में आप लोग त्रसभूत शब्द का प्रयोग करना ठीक समझते हैं, त्रस का प्रयोग करना ठीक नहीं समझते, इसका क्या कारण है ? तथा ये दोनों ही शब्द जबकि समान अर्थ के बोधक हैं, तब क्या कारण है कि आप एक की प्रशंसा और दूसरे को निन्दा करते हैं। अतः आपका यह पक्षपात या भेद करना न्यायसंगत नहीं है। __इसके आगे भगवान् गौतम स्वामी ने कहा-हे उदक ! साधु समस्त प्राणियों की हिंसा से स्वयं निवृत्त होकर यही चाहता है कि कोई भी मनुष्य किसी भी प्राणी की हिंसा न करे, परन्तु उसके निकट कितने ही ऐसे लोग भी आते हैं, जो समस्त प्राणियों की हिंसा को नहीं छोड़ना चाहते। वे कहते हैं कि निर्ग्रन्थ गुरुवर ! मैं समस्त प्राणियों की हिंसा का त्याग करके साधुत्व का पालन करने में अभी समर्थ नहीं हूँ किन्तु क्रमशः प्राणियों की हिंसा का त्याग करना चाहता हूँ, इसलिए गृहस्थ अवस्था में रहते हुए जितना त्याग मेरे से हो सकता है, उतना ही त्याग करना चाहता हूँ। यह सुनकर साधु विचार करता है कि यह सभी प्राणियों की हिंसा से निवृत्त होना यदि नहीं चाहता, तो जितने प्राणियों की हिंसा से निवृत्त हो, उतना ही सही, इसलिए साधु उसे त्रस प्राणियों के न मारने की प्रतिज्ञा कराता है और इस प्रकार त्रस प्राणियों के घात से निवृत्ति की प्रतिज्ञा करना भी उस पुरुष के लिए अच्छा ही होता है, क्योंकि जहाँ वह सबका घात करता था, वहाँ वह कुछ तो छोड़ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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