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________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय ४०१ जोवेहि पाहि भूएहि सहि संजमयंति, ताण वि ते अब्भाइक्खंति, कस्स णं तं हेउं ? संसारिया खलु पाणा, तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरावि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसकायाओ विप्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववज्जति, थावर कायाओ विप्पमुच्चमाणा तसकायंसि उववज्जति । तेसिं च णं तसकायंसि उववन्नाणं ठाणमेयं अघत्तं ।। सू०७४ ।। ____संस्कृत छाया संवादं भगवान् गौतमः उदकं पेढालपुत्रं एवमवादीत् --आयुष्मन् उदक ! नो खल्वस्मभ्यमेवं रोचते, ये ते श्रमणा वा माहना वा एवमाख्यायन्ति यावत् प्ररूपयन्ति', नो खलु ते श्रमणा वा निर्ग्रन्था वा भाषां भाषन्ते, अनुतापिनी ते भाषां भाषन्ते, अभ्याख्यान्ति ते श्रमणान् वा श्रमणोपासकान् वा। येष्वपि अन्येषु जीवेषु प्राणेषु भूतेषु सत्त्वेषु संयमयन्ति । कस्य खलु तस्य हेतोः ? सांसारिका: खलू प्राणाः नसा अपि प्राणाः स्थावरत्वाय प्रत्यायान्ति स्थावरा अपि प्राणा: त्रसत्वाय प्रत्यायान्ति त्रसकायतो विप्रमुच्यमानाः स्थावरकायेषुत्पद्यन्ते, स्थावरकायतो विप्रमुच्यमाना: त्रसकायेषूत्पद्यन्ते तेषां च खलु त्रसकायेत्पन्नानां स्थानमेतदघात्यम् ।।सू०७४।। __ अन्वयार्थ (सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्त एवं वयासी) भगवान गौतमस्वामी ने उदकपेढालपुत्र निर्ग्रन्थ से वाद (युक्ति) सहित इस प्रकार कहा-(आउसंतो उदगा ! नो खलु एयं अम्हं रोयइ) आयुष्मन् उदक ! आपका यह कथन (इस प्रकार से प्रत्याख्यान कराने की बात) हमें अच्छी नहीं लगती कि (जे ते समणा वा माहणा वा एवमाइक्खंति जाव परुति, णो खलु ते समणा वा निग्गंथा वा भासं भासंति, अणुतावियं खलुते भासं भासंति) जो श्रमण या माहन आपके कथनानुसार कहते हैं, उपदेश देते हैं या प्ररूपणा करते हैं, वे श्रमण निर्ग्रन्थ यथार्थ भाषा नहीं बोलते, अपितु वे अनुतापिनी-संताप उत्पन्न करने वाली भाषा बोलते हैं । (ते समणे समणोवासए वा खलु अब्भाइक्खंति) वे लोग उन श्रमणों और श्रमणोपासकों पर व्यर्थ ही दोषारोपण करते हैं, झूठा कलंक लगाते हैं, (जेहि वि अन्नहि जीवेहि पाणेहिं भूएहि सहि संजमयंति, ताण वि ते अब्भाइक्खंति) जो (श्रमण या श्रमणोपासक), प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के विषय में संयम (ग्रहण) करते-कराते हैं, उन पर भी वे दोषारोपण करते हैं । (कस्स णं तं हेउ ?) उसका कारण क्या है ? सुनिए । (संसारिया खलु पाणा) समस्त प्राणी संसरणशील-परिवर्तनशील हैं, (तसा वि पाणा थावरत्ताए पच्चायंति, थावरा वि तसत्ताए पच्चायंति) त्रस प्राणी भी स्थावरत्व के रूप में आते है, स्थावरप्राणी भी त्रसत्व के रूप में आते हैं, (तसकयाओ दिप्पमुच्चमाणा थावर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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