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पण्डितजी के प्रिय शिष्य श्री भण्डारीजी महाराज के अन्तर्मन में भावना जगी कि यह विराट शास्त्र आधुनिक शैली से पुनः सम्पादित होकर जन-चेतना के समक्ष आए । मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि भण्डारीजी की उक्त मंगल-भावना ने आज सुचारु रूप से मूर्त रूप लिया है ।
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पूर्व प्रकाशित प्रश्नव्याकरणसूत्र के समान सूत्रकृतांग के सम्पादन का यह महान् कार्य भी भंडारीजी के प्रिय शिष्य प्रवचनभूषण श्री अमरमुनिजी के द्वारा सम्पन्न हुआ है । श्री अमरमुनिजी प्रस्तुत आगम के व्याख्याकार पं० हेमचन्द्रजी महाराज के प्रशिष्य हैं । वे एक महान् कर्मठ, योग्य विचारक एवं जिनशासनरसिक तरुण मुनि हैं । वर्त - मान पंजाब जैन श्रमणसंघ में मुनिजी एक महान् यशस्वी प्रवक्ता हैं । उनकी वाणी से सहज ही वह अमृतकल्प रसधारा बरसती है, जो हजारों-हजार श्रोताओं के अन्तर्मन को गहराई से स्पर्श कर जाती है, आनन्द से सराबोर कर देती है। वस्तुतः वे सही अर्थ में प्रवचनभूषण हैं । सेवा की तो वे जीवित प्रतिमूर्ति ही हैं । सन् १९६४ के पूज्य गुरुदेव के जयपुर वर्षावास में उनकी अस्वस्थता के समय उन्होंने जो उदात्त सेवापरिचर्या की है, वह हम सब के स्मृति कोष की एक अक्षुण्ण निधि है । वस्तुतः अमर मुनिजी में अपने पूर्व गुरुजनों की संस्कारधारा प्रवाहित है, जो उन्हें यशस्वी बनाती रही है और बनाती रहेगी । इन दिनों में पूज्य गुरुदेव का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है | अतः इस महान् कार्य में प्रस्तावना के रूप में अपना योगदान देकर परम प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ । मुझे आशा है कि भविष्य में भण्डारीजी और अमरमुनिजी आगम प्रकाशन के इस महान् कार्य की परम्परा को आगे भी चालू रखेंगे 1
प्रस्तुत सूत्रकृतांग सूत्र के व्याख्याकार की व्याख्या भी सुन्दर है, सम्पादक का सम्पादन भी मधुर है और प्रेरक की प्रेरणा भी प्रशंसा के योग्य है । प्रस्तुत प्रकाशन से आगमाभ्यासी एवं स्वाध्यायप्रेमी भाई-बहन अधिक से अधिक लाभान्वित हों, यही मेरी मंगल भावना है। सुरभित सुमन की सुगन्ध सब ओर मुक्तगति से फैलनी ही चाहिए ।
वीरायतन, राजगृह अक्षय तृतीया
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