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सूत्रकृतांग सूत्र
आप में इन क्रोधादि से रहित, शुद्ध । ये आत्मा के स्वभाव नहीं हैं । कई कहते हैं— क्रोध मान से भिन्न नहीं है, बल्कि वह मान का ही अंश है । इसीलिए तो अभिमानी पुरुषों में क्रोध का उदय देखा जाता है, तथा क्षपक श्रेणी में क्रोध का अलग से क्षपण (नष्ट) करना नहीं माना जाता, इसलिए क्रोध आत्मा का धर्म नहीं है, क्योंकि वह सिद्ध (मुक्त) आत्माओं में नहीं पाया जाता । तथा वह कर्म का भी धर्म (स्वभाव) नहीं है, क्योंकि कर्म का धर्म होने पर दूसरे कषायों के उदय के साथसाथ इसका भी उदय होना चाहिए, एवं कर्म घट के समान अमूर्त है, इसलिए यदि क्रोध कर्मस्वरूप हो तो उसकी उपलब्धि भी स्वतन्त्र आकार में होनी चाहिए । परन्तु ये सब नहीं होते । अतः क्रोध न तो आत्मा का धर्म है और न कर्म का । आत्मा और कर्म का धर्म न होकर यदि क्रोध किसी दूसरे पदार्थ का धर्म हो, तब तो
कषायरूप कर्म के उदय होने
उससे आत्मा की कोई हानि नहीं है । अतः क्रोध का कोई अस्तित्व नहीं है । उपर्युक्त मन्तव्य यथार्थ नहीं है । क्योंकि क्रोध पर मनुष्य अपने दाँतों से ओठों को काटने लगता है, भोंहें टेढ़ी करके भुह भयंकर बना लेता है, मुख लाल-लाल हो जाता है, सिर से पसीने की बूंदें भी टपकने लगती हैं। क्रोध का यह लक्षण प्रत्यक्ष देखा जाता है । अत: क्रोध का न मानना प्रत्यक्ष
विरुद्ध है । क्रोध मान का अंश है, यह बात भी गलत है । क्योंकि वह मान का कार्य नहीं करता मान तो दूसरे कारण से उत्पन्न होता है । क्रोध आत्मा और कर्म दोनों का ही धर्म है, किसी एक का धर्म मानकर जो दोष बताये गये हैं, वे ठीक नहीं हैं । इस प्रकार क्रोध आदि की सत्ता स्पष्ट सिद्ध होने पर भी उन्हें न मानना अज्ञान का फल है । मान भी प्रत्यक्ष उपलब्ध होता है, उसे न मानना भूल है । दोनों का अस्तित्व मानना विवेकी पुरुषों का कर्त्तव्य है । कोध और मान के चार-चार भेद हैं— अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानीय, प्रत्याख्यानीय और संज्वलन |
क्रोध और मान की तरह कई लोग माया और लोभ को भी नहीं मानते, वे अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिए पूर्वोक्त दलीलें देते हैं, उनका खण्डन भी पूर्वोक्त रीति से समझ लेना चाहिए । माया कपट को और लोभ वितृष्णा को कहते हैं ।
अपने धन -स्त्री- पुत्र आदि पदार्थों के प्रति मनुष्यों की जो प्रीति होती है, उसे राग या प्रेम कहते हैं । उसके दो अंग हैं, - , - माया और लोभ । अपनी इष्ट वस्तु पर आघात पहुँचाने वाले पुरुष के चित्त में अप्रीति होना द्व ेष है । इसके भी दो अंग हैंhtr और मान । इस प्रकार माया और लोभ दोनों के समुदाय को राग और क्रोध एवं मान दोनों के समुदाय को द्व ेष कहते हैं । इस सम्बन्ध में किसी का मन्तव्य है कि माया और लोभ तो अवश्य हैं, पर इनका समुदाय राग कोई वस्तु नहीं है, इसी प्रकार मान और क्रोध तो अवश्य हैं, पर इनका समुदाय जो द्वेष है, वह कोई वस्तु नहीं हैं । क्योंकि समुदाय अवयवों से कोई अलग पदार्थ नहीं हैं । यदि अलग पदार्थ माना जाय तो घटपटादि की तरह अवयवों से अलग उसकी उपलब्धि होनी चाहिए परन्तु इस प्रकार उपलब्धि नहीं है । इसलिए समुदाय या अवयवी कोई वस्तु नहीं है
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