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पंचम अध्ययन : अनगारश्रुत-आचारश्रुत
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संस्कृति ( स्पष्टता आदि ) पैदा होती साक्षात् देखी जाती है । यह विकृति अमूर्त विज्ञान ( ज्ञान ) के साथ मूर्त मद्य का सम्बन्ध माने बिना सम्भव नहीं है । अतः जिस प्रकार अमूर्त विज्ञान के साथ मूर्त मद्य आदि का सम्बन्ध होता है, वैसे ही अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्म - पुद्गलों के साथ सम्बन्ध होने से बन्ध अवश्य होता है ।
दूसरी बात यह है कि संसारी आत्मा अनादिकाल से तैजस और कार्मण शरीरों के साथ बद्ध होने के कारण कथंचित् मूर्त ही है । अर्थात् आत्मा अपने मूलभूत शुद्ध स्वभाव की अपेक्षा से अमूर्त है, ज्ञान-दर्शन-चारित्र तपोमय है, तथापि तैजसकार्मण शरीरों के साथ सम्बद्ध होने के कारण कथंचित् मूर्त भी है। इस अपेक्षा से आत्मा का कर्म-पुद्गलों के साथ बन्ध होना निर्बाध है और जब बन्ध होता है, तो उसका अभाव (मोक्ष) भी सम्भव है । अतः बन्ध और मोक्ष नहीं हैं, इस प्रकार की बुद्धि का त्याग करके बन्ध भी है, मोक्ष भी है, इस मान्यता का स्वीकार करना चाहिए | कुतर्क और कदाग्रह करके शास्त्रसम्मत समझ को छोड़ देना उचित नहीं है । यह पन्द्रहवीं गाथा का तात्पर्य है ।
पुण्य और पाप को मानना यथार्थ है " जैनदर्शन के अनुसार शुभकर्मपुद्गल पुण्य है और जो अशुभकर्म पुद्गल हैं, वे पाप हैं ।' अर्थात् शुभ प्रकृतियों को पुण्य कहते हैं । जिसके कारण यह पुण्यात्मा है, ऐसा व्यवहार होता है, वह भी पुण्य है । जो अशुभ क्रिया से उत्पन्न हो, और अधोगति का कारण हो उसे पाप कहते हैं । किसी-किसी के मतानुसार 'प्रकटं पुण्यं, प्रच्छन्न पापम्' जो प्रकट हो, वह पुण्य है और जो प्रच्छन्न हो या छिपाया जाता हो वह पाप है ।"
कई अन्य
इस प्रकार पुण्य और पाप दोनों का अस्तित्व मानना चाहिए। तीर्थिक मानते हैं कि इस जगत् में 'पुण्य' नामक का कोई पदार्थ नहीं है, किन्तु एक मात्र पाप ही है । पाप जब कम हो जाता है, तब वह सुख उत्पन्न करता है और जब पाप अधिक हो जाता है, तब वह दुःख उत्पन्न करता है ।
कुछ अन्य दार्शनिक इसे न मानकर कहते हैं कि जगत् में पाप नाम का कोई पदार्थ नहीं है, एकमात्र पुण्य ही है । वह पुण्य जब घट जाता है, तब दुःख उत्पन्न करता है और जब वह बढ़ जाता है, तब सुख की उत्पत्ति करता है ।
तीसरे मतवादी कहते हैं कि पुण्य या पाप दोनों ही पदार्थ मिथ्या हैं, क्योंकि जगत् की विचित्रता नियति, स्वभाव आदि के कारण से होती है । अतः पाप और पुण्य के द्वारा जगत् की विचित्रता मानना मिथ्या है ।
१ " पुद्गलकर्म शुभं यत् तत्पुण्यमिति जिनशासने दृष्टम् । यदशुभमथ तत् पापमिति भवति
सवनिर्देशात् ॥ "
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