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पंचम अध्ययन : अनगारश्रुत-आचारश्रुत
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जगत में जितने भी प्राणी हैं, वे सभी अपने-अपने जीव का अस्तित्व अनुभव करते हैं । सभी कहते हैं - 'मैं हूँ।' कोई भी ऐसा नहीं कहता कि 'मैं नहीं हूँ।' अतः सभी प्राणियों को जीव का मानस-प्रत्यक्ष होता है । प्रत्यक्ष सबसे श्रेष्ठ और बड़ा प्रमाण है । अतः प्रत्यक्षसिद्ध जीव के साधन के लिए अनुमान आदि प्रमाणों का प्रयोग करके ग्रन्थ का कलेवर बढ़ाना उचित नहीं है । यह जीव सिद्ध और संसारी भेद से दो प्रकार का है । सभी जीव अलग-अलग और स्वतन्त्र हैं। किसी के साथ किसी जीव का कार्यकारण भाव नहीं है ।
___ इसी प्रकार वेदान्तियों का मत भी यथार्थ नहीं है। जीव या अजीव सभी पदार्थ यदि एक ही ब्रह्म (आत्मा) यानी एक ही आत्मा से उत्पन्न होते तो उनमें परस्पर विचित्रता न होती। इसके सिवाय यदि आत्मा एक ही होता तो कोई बद्ध जीव है, कोई मुक्त है, कोई सुखी, कोई दुःखी इत्यादि व्यवस्था जो सभी के अनुभव से सिद्ध है, वह न होती । तथा सभी जोव-अजीव आदि किसी एक ब्रह्म या आत्मा के परिणाम नहीं हैं, क्योंकि इस विषय में कोई प्रमाण भी नहीं है। इस जगत् में घट-पट आदि अचेतन पदार्थ भी अनन्त हैं, वे चेत न रूप आत्मा या ब्रह्म के परिणाम हों, सा सम्भव नहीं है। क्योंकि ऐसा होने पर वे जड़ नहीं, किन्तु चेतन होते। सारे जगत् में एक ही आत्मा मानने पर एक के सुख से दूसरे सुखी और एक के दुःख से दूसरे दुःखी हो जाते, परन्तु ऐसा है नहीं। अतः एक आत्मा को ही परमार्थसत् मानकर शेष समस्त पदार्थों को मिथ्या मानना आत्माद्व तवादियों का भ्रम है । अत: जीव और अजीव दोनों का अस्तित्व स्वीकार करना ही युक्तिसंगत है ।
____धर्म और अधर्म के अस्तित्व का यथार्थ ज्ञान श्रुत और चारित्र धर्म कहलाते हैं, वे आत्मा के अपने स्वाभाविक परिणाम हैं तथा वे कर्मक्षय के कारण हैं। इसी प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच अधर्म कहलाते हैं, ये भी आत्मा के वैभाविक परिणाम है। धर्म और अधर्म, ये दोनों अवश्य हैं, अतः इनका निषेध नहीं करना चाहिए। उपर्युक्त बात सत्य होने पर भी कई दार्शनिक काल, स्वभाव, नियति और ईश्वर आदि को समस्त जगत् की विचित्रता कारण मानकर धर्म-अधर्म को नहीं मानते । परन्तु उनकी यह मान्यता यथार्थ नहीं है । क्योंकि धर्म-अधर्म के बिना वस्तुओं की विचित्रता सम्भव नहीं है । काल, स्वभाव और नियति आदि भी कारण अवश्य हैं, लेकिन वे धर्म-अधर्म के साथ ही कारण होते हैं, इन्हें छोड़कर नहीं। एक ही काल में जन्म धारण करने वाला कोई व्यक्ति काला, कोई गोरा, कोई सुन्दर, कोई बीभत्स, कोई हृष्टपुष्ट, कोई दुर्बल, कोई पूर्णांग, कोई अंगहीन आदि होता है। अतः काल आदि की समानता, समकालिकता होने पर भी धर्म-अधर्म की भिन्नता के कारण ही उक्त विचित्रता होती है । अतः धर्म-अधर्म को न मानना भूल है। इसीलिए आचार्यों ने कहा है
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