________________
पंचम अध्ययन : अनगारश्रुत-आचारश्रुत
३११
व्यवहार नहीं हो सकता । अतएव किसी भी एकान्त पक्ष का स्वीकार करना अनाचार समझना चाहिए ।
मूल पाठ
जमियं ओरालमाहार, कम्मगं च तहेव य । सव्वत्थ वीरियं अत्थि, णत्थि सव्वत्थ वीरियं ॥ १० ॥ एएहि दोहि ठाणेह ववहारो ण विज्जइ । एएहि दोहि ठाणेहिं अणावारं तु जाणए ॥११॥ संस्कृत छाया
यदिदमौदारिकमाहारकं कर्मगञ्च तथैव च । सर्वत्र वीर्यमस्ति, नास्ति सर्वत्र वीर्यम् ॥ १० ॥ एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां व्यवहारो न विद्यते । एताभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामनाचारं तु जानीयात् ।। ११ ।। अन्वयार्थ
( जमियं ) यह जो प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला ( ओराल ) औदारिक शरीर है, (आहार) आहारक शरीर है (च) और (कम्मगं) तथा कार्मण शरीर है ( तहेव य ) 'तथैव च ' शब्द से इसी प्रकार वैक्रिय एवं तैजस शरीर हैं । ये पाँचों शरीर (सब) एकान्ततः भित्र नहीं है ( एक ही हैं ), अथवा ये एकान्त रूप से भिन्न-भिन्न हैं, ऐसे दोनों एकान्तमय वचन नहीं कहने चाहिए | ( सव्वत्थ atri अत्थि णत्थि सव्वत्थ वीरियं) एवं सब पदार्थों में सब पदार्थों की शक्ति (वीर्य) मौजूद है, अथवा सब पदार्थों में सब की शक्ति नहीं है, ऐसा एकान्त वचन भी नहीं कहना चाहिए ||१०|| (एएहि दोहि ठाणे ववहारो ण विज्जइ) क्योंकि इन दोनों स्थानों (एकान्त वचनों) से व्यवहार नहीं होता । (एएहिं दोहि ठाणेह अणायारं तु जाणए) इसलिए इस प्रकार के दोनों एकान्त पक्षों का आश्रय लेना अनाचार सेवन समझना चाहिए || ११||
व्याख्या
पाँच शरीरों को एकान्त भिन्न अथवा अभिन्न न कहे
जैन सिद्धान्तानुसार शरीर ५ प्रकार के हैं- ओदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण । जो शरीर सर्वप्रत्यक्ष है, उदार -स्थूल पुद्गलों से बना हुआ है वह शरीर औदारिक कहलाता है । यह शरीर उराल अर्थात् निस्सार भी है, इसलिए इसे ओराल भी कहते हैं । औदारिक शरीर मनुष्यों और तिर्यंचों के होता है । आहारक शरीर का स्वरूप यह है कि वह चतुर्दशपूर्वधर मुनियों द्वारा किसी विषय में संशय होने पर बनाया जाता है । 'च' शब्द से वैक्रिय शरीर का भी ग्रहण कर लेना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org