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________________ २६२ सूत्रकृतांग सूत्र मक्खायं) उन त्रस और स्थावरयोनिक उदकों के अनेक वर्ण आदि वाले दूसरे शरीर भी कहे गये हैं। (अह अवरं पुरक्खायं) इसके पश्चात् श्री तीर्थकरदेव ने जलयो निक जलकाय के स्वरूप का पहले निरूपण किया था। (इहेगइया सत्ता उदगजोणियाणं जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा उदगजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए विउटति) इस जगत् में कितने ही जीव उदकयोनिक उदकों में अपने पूर्वकृत कर्म के वशीभूत होकर आते हैं, वे उदकयोनिक उदकों में जन्म लेते हैं। (ते जीवा तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेति) वे जीव उन उदकयोनिक उदकों के स्नेह का आहार करते हैं, (ते जीवा आहारति पुढवीसरीरं जाव संतं) वे जीव पृथ्वी काय' आदि का भी आहार करते हैं और उन्हें धीरे-धीरे अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । (तेसि उदगजोणियाणं उदगाणं अवरेऽवि य सरीरा णाणावग्णा जावमक्खायं) उन उदकयोनि वाले उदकों के दूसरे भी अनेक रंग-रूप, गन्ध, रस, स्पर्श और आकार-प्रकार के शरीर होते हैं, ऐसा कहा गया है। (अह अवरं पुरक्खायं) इसके पश्चात् श्री तीर्थंकरदेव ने उदकयोनिक त्रसकाय का निरूपण पहले किया था। (इगइया सत्ता उदगजोणियाणं जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुकम्मा उदगजाणिएस उदएसु तसपाणत्ताए विउति) इस जगत् में कितने ही प्राणी अपने पूर्वकृत कर्म से प्रेरित होकर उ दकयोनिक उदक में आते हैं और वे उदकयोनिक उदक में त्रस प्राणी के रूप में उत्पन्न होते हैं। (ते जीवा सि उदगजोणियाणं उदगाणं सिरोहमाहारेंति) वे जीव उन उदकयोनि वाले उदकों के स्नेह का आहार करते हैं। (ते जीवा पुढवीसरीरं जाव आहारति) वे जीव पृथ्वीकाय आदि के शरीरों का भी आहार करते हैं (तेसि उदगजोणियाणं तसपाणाणं अवरेऽवि य सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं) उन उदकयोनिक त्रस प्राणियों के दूसरे भी अनेक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श तथा आकार-प्रकार के अनेक शरीर बताये गये हैं। व्याख्या बस-स्थावरयोनिक जीवों के आहारादि का वर्णन वायुयोनिक अवकाय--इस सूत्र में सर्वप्रथम वायुयोनिक अप्काय के जीवों की उत्पत्ति एवं आहारादि का निरूपण किया गया है। इस जगत् में कतिपय प्राणी ऐसे हैं, जो अपने पूर्वकृत कर्म के अधीन होकर वायुयोनिक अप्काय में उत्पन्न होते हैं। वे मेंढक आदि त्रस तथा नमक और हरित आदि स्थावर प्राणियों के सचित्त और अचित्त नानाविध शरीरों में वायुकायिक अप्काय के रूप में जन्म धारण करते हैं। वह अप्काय वायुजनित है, इसलिए उसका उपादान कारण वायु ही है, तथा उस जल को धारण और संग्रह करने वाली भी वायु ही है। बादलों में जो जल होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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