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________________ २५६ सूत्रकृतांग सूत्र तरह से नहीं। इनमें से कई प्राणी तो अण्डा देते हैं, और कई बच्चा पैदा करते हैं। ये प्राणी माता के गर्भ से निकलकर वायुकाय का आहार करते हैं। जैसे मनुष्य आदि के बच्चे माँ का दुध पीकर पुष्ट होते हैं, वैसे ही ये प्राणी भी अपनी जाति के स्वभावानुसार वायु पीकर पुष्ट होते हैं । पर ज्यों-ज्यों ये बड़े होते जाते हैं, पृथ्वी से लेकर वनस्पतिकाय तक के स्थावरजीवों एवं द्वीन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक नसजीवों का आहार करते हैं, उनके रस और स्नेह को पचाकर अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं। इनके शरीर के ढाँचे, आकार-प्रकार, रंग-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि भी नाना प्रकार के होते हैं । यह सब प्ररूपणा श्री तीर्थंकरदेव ने की है। इसके पश्चात् भुजपरिसर्प स्थलचर तिर्यंच पञ्चेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति और आहार आदि का वर्णन है। भुजपरिसर्प उन्हें कहते हैं, जो प्राणी भुजा के बल से पृथ्वी पर चलते हैं। इन प्राणियों के कुछ नामों का यहाँ शास्त्रकार ने उल्लेख किया हैं। इनमें चूहा, नेवला, गोह आदि जानवर प्रसिद्ध हैं। ये जीव अपने कर्म से प्रेरित होकर इन योनियों में जन्म धारण करते हैं। इन प्राणियों की उत्पत्ति की प्रक्रिया और आहार आदि का सब वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए । ये प्राणी भी अनेक रंगरूप, आकार-प्रकार, गन्ध, रस, स्पर्श से युक्त शरीर वाले होते हैं। इससे आगे के इसी सूत्रान्तर्गत पाठ में आकाशचारी पक्षियों की उत्पत्ति और आहार आदि का वर्णन है । वैसे तो आकाशचारी पक्षी अनेक किस्म के होते हैं, परन्तु यहाँ शास्त्रकार ने उन्हें चार कोटियों में विभक्त किया है-(१) चर्मपक्षी, (२) रोमपक्षी, (३) समुद् गपक्षी और (४) विततपक्षी। चर्मकीट और वल्गुली आदि पक्षी चर्मपक्षी कहलाते है, राजहंस, सारस, बगुला, कौआ आदि रोमपक्षी कहलाते हैं । ढाई द्वीप से बाहर के पक्षी समुद्गपक्षी और विततपक्षी कहलाते हैं । ये प्राणी अपनी उत्पत्ति के योग्य बीज और अवकाश के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं, अन्य रूप से नहीं । पक्षी जाति की मादा अपने अंडे को अपने पंखों से ढककर बैठती है, उसे सेती है, ऐसा करके वह अपने शरीर की गर्मी को अंडे में प्रवेश कराती है । उस गर्मी का आहार (सेवन) करके वह पक्षी का बच्चा अंडे के अन्दर ही अन्दर बड़ा होता जाता है । जब वह कलल-अवस्था को छोड़कर चोंच आदि अवयवों के रूप में परिणत हो जाता है और उसके सभी अंग पूर्ण (पर्याप्त) हो जाते हैं, तब वह अंडा फूटकर दो भागों में बँट जाता है । अंडे में से निकला हुआ बच्चा माता के द्वारा दिये हुए आहार को खाकर वृद्धि पाता है। शेष सब बातें पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। __यहाँ तक मनुष्यों और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के आहार की व्याख्या की गई है। विशेष बात यह है कि इनका आहार दो प्रकार का होता है-एक आभोग से और दूसरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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