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तृतीय अध्ययन : आहार-परिज्ञा
२५५ अपने-अपने उपयुक्त बीज और अवकाश के अनुसार ही जन्म ग्रहण करते हैं। वे प्राणी गर्भ में आकर अपनी माता के आहारांश का आहार करते हैं । वे प्राणी गर्भ से निकलकर पहले जल से स्नेह का आहार करते हैं। फिर बड़े होने पर वनस्पतिकाय का तथा अन्य वस और स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं। ये जलचर जीव पंचेन्द्रिय जीवों का भी आहार करते हैं । वाल्मीकि रामायण में वर्णन मिलता है
'अस्ति मत्स्यस्तिमि म शतयोजनविस्तरः।
तिमिगिलगिलोऽप्यस्ति, तगिलोऽप्यस्ति राघव !"
"हे राम ! सौ योजन लम्बा एक 'तिमि' नामक मत्स्य होता है। उसे निगल जाने वाला एक मत्स्य होता है, उसे तिमिगिल कहते हैं और उस तिमिगिल को भी निगल जाने वाला एक और मत्स्य होता है, जिसे 'तिमिगिलगिल' कहते हैं। तथा उसे भी निगल जाने वाला एक सबसे बड़ा मत्स्य होता है।"
जैसे मनुष्य योनि में स्त्री, पुरुष और नपुसक ये तीन भेद होते हैं, इसी तरह जलचरों में भी तीन भेद होते हैं। जलचर जीव कीचड़ का भी आहार करते हैं और उसे पचाकर अपने शरीर में परिणत कर लेते हैं। ये जीव अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भोगने के लिए जलचरयोनि में उत्पन्न होते हैं, यह जानना चाहिए।
इससे आगे इसी सूत्र में पृथ्वी पर विचरण करने वाले (स्थलचारी) पाँचों इन्द्रियों से युक्त चौपाये जानवरों की उत्पत्ति, आहार आदि का वर्णन है । वे चौपाये पशु कोई एक खुर वाले होते हैं, जैसे घोड़े, गधे आदि जानवर, तथा कोई दो खुर वाले होते हैं, जैसे गाय, भैंस आदि, कोई गण्डीपद यानी फलक के समान पैर वाले होते हैं, जैसे हाथी, गेंडा आदि, कोई नखयुक्त पंजे वाले होते हैं, जैसे बाघ, सिंह आदि । वे जीव अपने बीज और अवकाश के अनुसार ही जन्म धारण करते हैं, अन्य प्रकार से नहीं। उनका गर्भ में आने से लेकर गर्भ से बाहर आने (जन्म लेने) तक का सारा वर्णन मनुष्य के वर्णन के समान ही जानना चाहिए । समस्त पर्याप्तियों से पूर्ण होकर जब ये प्राणी माता के गर्भ से बाहर आते हैं, तब माता के दूध को पीकर अपना जीवन धारण करते हैं। जब ये बड़े हो जाते हैं, तब वनस्पति और त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं। शेष बातें पूर्व पाठ के समान ही जानना चाहिए। वे प्राणी अपने किये हुए कर्मों का फल भोगने के लिए इन योनियों में जन्म धारण करते हैं । यह सब प्ररूपणा तीर्थंकरदेव ने को है।
___ इसके अनन्तर सर्प, अजगर आदि प्राणियों के आहारादि का वर्णन है। ये जमीन पर छाती के बल रेंगकर या सरककर चलते हैं, इसलिए ये उर:परिसर्प कहलाते हैं। ये प्राणी भी अपने बीज और अवकाश को पाकर ही उत्पन्न होते हैं ; दूसरो
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