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________________ २४८ सूत्रकृतांग सूत्र करता है । इस प्रकार वह जीव माता के आहारांश को ओज, मिश्र और लोम के द्वारा क्रमशः आहार करता हुआ धीरे-धीरे वृद्धि पाता है, गर्भावस्था पूर्ण होने पर वह जीव पुष्ट होकर माता के शरीर से बाहर आता है । वास्तव में वे जीव अपने-अपने कर्मानुसार कोई स्त्री रूप में, कोई पुरुष रूप में और कोई नपुंसक रूप में जन्म ग्रहण करते हैं, किसी अन्य कारण से नहीं । कुछ लोगों की मान्यता है कि जो जीव पूर्वभव में स्त्री होता है, वह अगले भव में भी स्त्री ही होता है, तथा जो पूर्वभव में पुरुष या नपुंसक होते हैं, वे आगामी जन्म में भी पुरुष और नपुंसक ही होते हैं, इनके वेद ( लिंग ) का परिवर्तन कदापि नहीं होता । परन्तु यह मान्यता अज्ञानमूलक है । क्योंकि कर्म की विचित्रता के कारण वेद ( लिंग ) का परिवर्तन होना स्वाभाविक है । अतः जीव अपने कर्म के प्रभाव से कभी स्त्री, कभी पुरुष और कभी नपुंसक वेद को प्राप्त करता है, यही यथार्थ है । गर्भ से निकलकर बालक पूर्वजन्म के अभ्यास के अनुसार आहार लेने की इच्छा करता है । पहले-पहल वह माता का स्तनपान करके पोषण पाता है । फिर ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता है, स्तनपान छोड़कर दूध, दही, घी, चावल, दाल, रोटी, मिठाई आदि विभिन्न पदार्थों को खाता है । इसके पश्चात् वह त्रस और स्थावर प्राणियों का आहार करता है। आहार किये हुए पदार्थों को पंचाकर वह अपने रूप में मिला लेता है । पृथ्वी आदि के शरीरों का भी वह आहार करता है । मनुष्यों के शरीर में जो रस, रक्त, मांस, मेद, हड्डी, मज्जा और शुक्र आदि सात धातु पाए जाते हैं, उनकी उत्पत्ति भी उनके द्वारा किये हुए आहारों से ही होती है । कर्मभूमि, कर्मभूमि एवं अन्तद्वीप में जो आर्य या म्लेच्छ मानव होते हैं, वे भी अनेक रंगरूप, Astaste, ढाँचे तथा विभिन्न गन्ध, रस एवं स्पर्श से युक्त होते हैं । यह सब तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित है । मूल पाठ अहावर पुरवखायं णाणाविहाणं जलचराणं पचिदियतिरिक्खजोणियाणं, तं जहा --मच्छाणं जाव सु सुमाराणं । तेंसि च णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थी पुरिसस्स य कम्मकडा तहेव जाव ततो एगदेसेणं ओयमाहारेंति, आणुपुव्वेणं वुड्ढा पलिपागमणुपवन्ना ततो कायाओ अभिनिवट्टमाणा अंडं वेगया जणयंति, पोयं वेगया जणयंति, ते से अंडे उब्भिज्जमाणे इत्थि वेगया जयंति पुरिसं वेगया जणयंति नपुं सगं वेगया जणयंति ते जीवा डहरा समाणा आउसिणेहमाहारेंति, आणुपुव्वेणं वुड्ढा वणस्सइकार्य तस्थावरे य पाणे । ते जीवा आहारति पुढविसरोर जाव संतं । अवरेऽवि य णं तेसि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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