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________________ २४६ अन्वयार्थ ( अह णाणाविहाणं मणुस्साणं अवरं पुरक्खायं ) इसके पश्चात् श्री तीर्थंकरदेव ने अनेक प्रकार के मनुष्यों का स्वरूप बतलाया है ( तं जहा -कम्मभूमगाणं अकस्मभूमगाणं अंतरद्दीवगाणं आरियाणं मिलक्खुयाणं) जैसे कि कई मनुष्य कर्मभूमि में उत्पन्न हुए हैं, कई अकर्मभूमि में कई अन्तद्वीप में पैदा हुए हैं, कई आर्य होते हैं, कई म्लेच्छ होते हैं । ( तेसि च णं अहाबीएण अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणिए एत्थ गं मेहुणवत्ताए णामं संजोगे समुपज्जइ ) उन जीवों की अपने-अपने बीज तथा अपनेअपने अवकाश के अनुसार उत्पत्ति होती है । इस उत्पत्ति के कारणरूप स्त्री और पुरुष का पूर्वकर्मनिर्मित योनि में यहाँ मैथुनहेतुक संयोग उत्पन्न होता है । (ते दुहओ वि सिहं संचिणंति) उस संयोग के होने पर उत्पन्न होने वाले जीव ( तैजस और कार्मण शरीर द्वारा) दोनों के स्नेह का आहार करते हैं । ( तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए, पुरिसत्ताए पुंसगत्ताए विउट्ठेति) वे जीव वहाँ स्त्रीरूप में, पुरुषरूप में और नपु सक रूप में उत्पन्न होते हैं । (ते जीवा माओउयं पिउसुक्कं तं तदुभयं संसठ्ठे कलर्स fafari तं पढमत्ताए आहारमाहारेंति) माता का रज और पिता का वीर्य, जो परस्पर मिले हुए मलिन और घृणित होते हैं, सर्वप्रथम वे जीव उन्हीं का आहार करते हैं । (तओ पच्छा माया जं से णाणाविहाओ रसविहीओ आहारमाहारेंति) इसके पश्चात् माता जिन अनेक प्रकार की सरस वस्तुओं का आहार करती है, वे जीव (तओ एगदेसेणं ओयमाहारेंति) उसके एकदेश ( अंश) का ओज आहार करते हैं । ( आणुपुवेणं वुड्ढा पलिपागमणुपवन्ना तओ कायाओ अभिनिवट्टमाणा इत्थि वेगया जणयंति, पुरिसं या जयंति सगं वेगया जणयंति) क्रमशः वृद्धि को प्राप्त तथा परिपाक को प्राप्त वे जीव माता के शरीर से निकलते हुए कोई स्त्रीरूप में, कोई पुरुषरूप में और कोई नपुंसक रूप में उत्पन्न होते हैं । ते जीवा डहरा समाणा माउक्खीरं सप्पि आहारेंति) वे जीव बालक होकर माता के दूध और घृत का आहार करते हैं । ( आणुपुव्वेणं वुड्ढा ते जीवा ओयणं कुम्मासं तस्थावरे य पाणे आहारेंति) क्रमशः बढ़ते हुए वे जीव चावल, कुल्माष तथा त्रस स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । (ते जीवा आहारेंति पुढवी सरीरं जाव सारूविकडं संत) वे जीव पृथ्वी आदि कायों का आहार करके उन्हें अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । (तेसि णाणाविहाणं मणुस्साणं कम्मभूमगाणं अकस्मभूमगाणं अंतरद्दीवगाणं आरियाणं मिलक्खूणं सरीरा णाणावण्णा भवतीतिमक्खायं ) उन कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तद्वीपज, आर्य और म्लेच्छ मनुष्यों के शरीर नाना वर्ण वाले होते हैं, यह श्री तीर्थंकर देव ने कहा है । व्याख्या मनुष्यों की उत्पत्ति और आहार का निरूपण सूत्रकृतांग सूत्र इस सूत्र में मनुष्यों के आहार आदि का निरूपण किया गया है। अब तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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