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________________ २४० सूत्रकृतांग सूत्र अन्वयार्थ (अहावरं पुरक्खायं) श्री तीर्थंकर प्रभु ने वनस्पतिकाय का और भी भेद बताया है। (इहेगइया सत्ता पुढवीजोणिया पुढवीसम्भवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा) इस जगत् में कई जीव पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं, उनकी स्थिति और वृद्धि भी पृथ्वी से होती है । वे कर्म से प्रेरित होकर वहाँ उत्पन्न होते हैं : (णाणाविहजोणियासु पुढवीसु आयत्ताए वायत्ताए कायत्ताए कूहणत्ताए कंदुकत्ताए उब्वेहणियत्ताए निव्वेहणियत्ताए, सछत्ताए, छत्तगत्ताए, वासाणियत्ताए कूरत्ताए विउटैंति) वे नाना प्रकार की योनिवाली पृथ्वी में आर्य, वाय, काय, कूहण, कन्दुक, उपेहणी, निर्वहणी, सछत्र, छत्रक, वासणी और कूर नामक वनस्पति के रूप में उत्पन्न होते हैं। (ते जीवा तेसि णाणाविहजोणियाणं पुढवीणं सिणेहमाहारेन्ति) वे जीव विभिन्न योनियों वाली पृथ्वीकायों के स्नेह का आहार करते हैं । (ते जीवा आहारेन्ति पुढवीसरीरं जाव संतं) वे जीव पृथ्वीकाय आदि छहों काय के जीवों के शरीर का आहार करते हैं। पहले उनसे रस खींचकर उन्हें वे प्रासुक कर देते हैं, फिर उन्हें अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । (तेसि पुढवीजोणियाणं आयत्ताणं जाव कूराणं अवरेऽवि य णाणावण्णा सरीरा जावमक्खायं) उन पृथ्वी से उत्पन्न आर्य वनस्पति से लेकर कूर वनस्पति तक के विभिन्न वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार-प्रकार और ढाँचे वाले दूसरे शरीर भी होते हैं। (एगो चेव आलावगो सेसा तिणि णत्थि) इनमें एक ही आलाप होता है, शेष तीन आलाप नहीं होते। (अहावरं पुरक्खाय) श्री तीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकाय के और भेद भी बताये हैं। (इहेगइया सत्ता उदगजोणिया उदगसम्भवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थवक्कमा णाणाविहजोणिएसु उदगेसु रुक्खत्ताए विउटैंति) इस जगत् में कई जीव ऐसे हैं, जो जल में उत्पन्न होते हैं और उसी में स्थिति और वृद्धि को प्राप्त होते हैं, वे जीव अपने पूर्वकृत कर्म से प्रेरित होकर वहाँ उत्पन्न होते हैं अनेक प्रकार की जाति वाले पानी में आकर वे वृक्षरूप से उत्पन्न होते हैं। (ते जीवा तेसि णाणाविहजोणियाणं उदगाणं सिणेहमाहारेन्ति) वे जीव नाना प्रकार की जातिवाले जलों के स्नेह का आहार करते हैं । (ते जीवा पुढवीसरीरं आहारति जाव संतं) वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति काय के शरीरों का भी आहार करते हैं। (तेसि उदगजोणियाणं रुक्खाणं अवरेऽवि य णं णाणावण्णा जावमक्खायं) उन जलयोनिक वृक्षों के दूसरे शरीर भी होते हैं, जो विभिन्न वर्ण (रंग-रूप), गन्ध, रस और स्पर्श तथा आकार-प्रकार के होते हैं। (जहा पुढवीजोणियाणं रुक्खाणं चत्तारि गमा, अज्झारहाणवि तहेव, तणाणं ओसहीणं हरियाणं चत्तारि आलावगा भाणियव्वा एक्केक्के) जैसे पृथ्वीयोनिक वृक्ष के चार भेद बताये गये थे, उसी प्रकार अध्यारुह वृक्ष, तृण और हरित के विषय में चार आलाप कहे गये हैं। (अहावरं पुरक्खायं) श्री तीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकाय के और भेद भी बताये हैं। (इहेगइया उदगजोणिया उदगसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा णाणाविह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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