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तृतीय अध्ययन : आहार - परिज्ञा
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प्राप्त करते हैं, वे जीव कर्म से प्रेरित होकर वहाँ आकर ( रुक्खजोणिएसु अज्झारोहेसु अझारोहत्ताए विउति) वृक्षयोनिक अध्यारुह नामक वृक्षों में अध्यारुह रूप से उत्पन्न होते हैं । (ते जीवा तेस रुक्खजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेति ) वे जीव वृक्षयोनिक अध्यारुहों के स्नेह का आहार करते हैं । (ते जीवा पुढवीसरीरं जाव सारूविकडं संत) वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीरों का भी आहार करते हैं और आहार करके उन्हें अपने शरीररूप में परिणत कर लेते हैं । (तेसि अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं अवरेऽवि य णाणावण्णा सरीरा जावमक्खायं ) उन अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्षों के अनेक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श और आकार वाले अनेक विध शरीर होते हैं, यह श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है || सू० ४८ ।।
( अहावरं पुरखायं ) श्री तीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकाय के और भी भेद बताये हैं । (इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवुक्कमा अज्झारोह जोगिएसु अज्झारोहत्ताए विउट्टंति) इस जगत् में कई जीव अध्यारुह वृक्षों से उत्पन्न होते हैं, तथा उन्हीं में उनकी स्थिति और वृद्धि होती है । वे प्राणी कर्म से प्रेरित होकर वहाँ आते हैं और अध्यारुहयोनिक अध्यारुह रूप में उत्पन्न होते हैं । (ते जीवा सि अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेंति) वे जीव अध्यारुहोनिक अध्यारुह वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं । ( ते जीवा पुढवीसरीरं आउसरीरं जाव आहारति सारूविकडं संतं) वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति शरीरों का भी आहार करते हैं और आहार करके उन्हें अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । (तेसि अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणादण्णा जावमक्खायं) उन अध्यारोहयोनिक अध्यारोह वृक्षों के दूसरे भी नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान आदि से युक्त शरीर होते हैं, यह तीर्थंकरदेव ने कहा है ।। सू० ४६ ।।
( अहावरं पुरखायं ) श्री तीर्थंकरदेव ने अध्यारह वृक्षों के और भी भेद बताये हैं । ( इहेगइया सत्ता अज्झारोहजोणिया अज्झारोहसम्भवा जाव कम्मनियाणेणं तत्थवुक्कमा अझारोह जोगिएसु अज्झारोहेसु मूलत्ताए जाव बीयत्ताए विउट्टंति) जगत् में कई जीव अध्यारुहयोनिक वृक्षों से अध्यारुहरूप में उत्पन्न होकर उन्हीं में स्थिति और वृद्धि को प्राप्त होते हैं । वे अपने पूर्वकृत कर्मों से प्रेरित होकर वहाँ आते हैं और अध्यारुहयोनिक अध्यारह वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, प्रवाल, शाखा, त्वचा, शाल आदि से लेकर बीज तक के रूपों में उत्पन्न होते हैं । ( ते जीवा अज्झारोहजोणियाणं तेसि अज्झारोहाणं सिणेहमाहारेन्ति) वे जीव उन अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं, (अज्झारोह जोणियाणं तेसि मूलाणं जाव बीयाणं सरीरा अवरेऽवि य णं णाणावण्णा जावमवखायं ) उन अध्यारुहयोनिक वृक्षों के मूल से लेकर बीज तक में नानावर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और रचना वाले दूसरे शरीर भी हैं, ऐसा तीर्थंकरदेव ने कहा है ।। सू० ५० ।।
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