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________________ २३२ सूत्रकृतांग सूत्र रुहसम्भवाः, यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः अध्यारुहयोनिकेषु अध्यारुहतया विवर्त्तन्ते। ते जीवास्तेषाम् अध्यारुहयोनिकानामध्यारहाणां स्नेहमाहारयन्ति। ते जीवा आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् सरूपी कृतम् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषामध्यारुहयोनिकानां अध्यारहाणां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि ।। सू० ४६ ।। अथाऽपरं पुराऽऽख्यातम् इहैकतये सत्त्वाः अध्यारुहयोनिकाः अध्यारुहसम्भवाः यावत् कर्मनिदानेन तत्र व्युत्क्रमाः अध्यारुहयोनिकेषु अध्यारुहेषु मूलतया यावत् बीजतया विवर्तन्ते । ते जीवास्तेषामध्यारुहयोनिकानामध्यारुहाणां स्नेहमाहारयन्ति यावदपराण्यपि च खलु तेषामध्यारुहयोनिकानां मूलानां यावद् बीजानां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि ।। सू०५० ॥ अन्वयार्थ (अहावरं पुरक्खायं) श्री तीर्थंकरदेव ने और भी भेद वनस्पतिकाय के जीवों के बताये हैं। (इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुक्कमा) इस जगत् में कई जीव वृक्ष से उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में ही स्थित रहते हैं और वृक्ष में ही बढ़ते हैं, (तज्जोणिया तस्संभवा तदुवक्कमा कम्मोववन्नगा कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा रुक्खजोणिएहि रुखैहि अज्झारोहत्ताए विउदंति) इस प्रकार वृक्ष से उत्पन्न और उसी में स्थिति और वृद्धि को पाने वाले जीव कर्माधीन एवं कर्म से प्रेरित होकर वनस्पतिकाय में आकर वृक्षयोनिक वृक्षों में अध्यारुह नामक वनस्पति के रूप में उत्पन्न होते हैं, (ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति) वे जीव वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं, (ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं जाव सारूविकडं संतं) वे जीव पृथ्वीशरीर से लेकर वनस्पति के शरीरपर्यन्त पूर्वोक्त सभी शरीरों का आहार करते हैं, यहाँ तक कि उन्हें अपने रूप में मिला लेते हैं (तेसि रुक्खजोणियाणं अज्झारोहाणं अवरेऽवि य सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं) उन वृक्षयोनिक अध्यारुह वृक्षों के नाना प्रकार के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श तथा अनेकविध रचना वाले दूसरे शरीर भी होते हैं। इन शरीरों को अपने पूर्वकृत कर्मों के प्रभाव से जीव प्राप्त करता है, यह श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है ।। सू० ४७ ।। (अहावरं पुरक्खायं) श्री तीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकाय के और भी भेद बताये हैं। (इहेगइया सत्ता अन्झारोहजोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा) कई प्राणी पूर्वोक्त अध्यारुह वृक्षों में उत्पन्न होते हैं और उन्हीं में स्थिति और वृद्धि को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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