________________
तृतीय अध्ययन : आहार-परिज्ञा
संस्कृत छाया
अथाऽपरं पुराऽख्यातम् इहैकतये सत्त्वाः वृक्षयोनिका, वृक्षसम्भवाः, वृक्षव्युत्क्रमा तद्योनिकाः सत्सम्भवाः तदुपक्रमाः वृक्षयोनिकेषु वृक्षेष मूलतया कन्दतया स्कन्धतया त्वक्तया सालतया प्रवालतया पत्रतया पुष्पतया फलतया बीजतया विवर्तन्ते । ते जीवास्तेषां वृक्षयोनिकानां वृक्षाणां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवाः आहारयन्ति पृथिवी शरीरमप्तेजोवायुवनस्पतिशरीरम्, नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणानां शरीरमचित्त कुर्वन्ति, परिविध्वस्तं तत् शरीरं यावत् सरूपीकृतं स्यात् । अपराण्यपि च खलु तेषां वृक्षयोनिकानां मूलानां कन्दानां स्कन्धानां त्वचां शालानां प्रवालानां यावत् बीजानां शरीराणि नानावर्णानि नानागन्धानि यावन्नानाविधशरीरपुद्गल विकारितानि भवन्ति । ते जीवाः कर्मोपपन्नकाः भवन्तीत्याख्यातम् ।। सू० ४६ ।।
२२६
अन्वयार्थ
( अहावरं पुरवखायं ) श्री तीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकायिक जीवों के और भेदप्रभेद भी बताये हैं | ( इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुक्कमा) इस जगत् में कई जीव वृक्ष से उत्पन्न होते हैं, वृक्ष में ही स्थित रहते हैं, वृक्ष में ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं । ( तज्जोणिया तस्संभवा तदुक्कमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा रुक्खजोणिएसु रुक्खेसु) वे वृक्ष से उत्पन्न, वृक्ष में ही स्थिति एवं वृद्धि को प्राप्त होने वाले जीव कर्मवश तथा कर्म से प्रेरित होकर वृक्षों में आते हैं और वृक्षयोनिक वृक्षों में (मूलत्ताए कंदत्ताए बंधत्ताए तयत्ताए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तताए पुष्कत्ता फलत्ताए बीयत्ताए विउट्ठेति) मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल एवं बीज रूप में उत्पन्न होते हैं । (ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति) वे जीव उन वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं । (ते जीवा पुढवीसरीरं आउ-तंउ वाउ - वणस्सइसरीरं आहारति ) वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का भी आहार करते हैं । ( णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सरीरं अचित्त कुव्वंति ) वे जीव नाना प्रकार के सों और स्थावर प्राणियों के सचित्त शरीर से रस खींचकर उसे अचित्त कर डालते हैं । (परिविद्धत्थं तं सरीरगं जाव सारूविकडं संतं) वे उनके शरीरों को प्रासुक ( क्षतविक्षत) करके अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । (अवरेऽवि य णं तेसि रुक्खजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं जाव बीयाणं सरीरा णाणावण्णा जाणागंधा जाव णाणाविहसरीरपुग्गल विउब्विया ) उन वृक्षयोनिक ( वृक्ष से उत्पन्न ) मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल और बीज रूप जीवों के और भी शरीर होते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org