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________________ २२८ सूत्रकृतांग सूत्र में आकर (रुक्खत्ताए विउटति) वृक्ष रूप में उत्पन्न होते हैं । (ते जीवा तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति) वे जीव उन वृक्षों से उत्पन्न वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं । (ते जीवा पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं आहारति) इसके अतिरिक्त वे जीव पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं । (तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्त कुव्वंति) वे बस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त कर डालते हैं। (परिविद्धत्थं पुवाहारियं तयाहारियं तं सरीरं विपरिणामियं सारूविकडं संतं) वे प्रासुक किये हुए तथा पहले खाये हुए और बाद में त्वचा द्वारा खाये हुए पृथ्वी आदि के शरीरों को पचाकर अपने रूप में मिला लेते हैं। (तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं अवरेऽवि य सरीरा णाणावण्णा जाव) उन वृक्षयोनिक वृक्षों के अनेक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले दूसरे शरीर भी होते हैं, (ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीतिमक्खायं) वे जीव कर्म के वशीभूत होकर वृक्षयोनिक वृक्षों में उत्पन्न होते हैं, यह श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है । व्याख्या वृक्षयोनिक वृक्षों में उत्पन्न होने वाले वृक्षयोनिक वृक्ष पूर्व सूत्र में पृथ्वीयोनिक वृक्षों में वृक्ष रूप से उत्पन्न होने वाले वनस्पतिकायिक जीवों की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि एवं आहार के सम्बन्ध में वर्णन किया गया था, जबकि इस सूत्र में उन वृक्षयोनिक वृक्षों में ही वृक्षरूप से उत्पन्न होने वाले विशिष्ट वृक्षयोनिक वृक्षों का वर्णन किया गया है। दोनों की व्याख्या प्राय: समान है। सभी वर्णन पूर्व सूत्र की व्याख्या के अनुसार जान लेना चाहिए । मूल पाठ अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया रुक्खसंभवा रुक्खवुक्कमा तज्जोणिया तस्संभवा तदुवकमा कम्मोवगा कम्मणियाणेणं तत्थवुकमा रुक्खजोणिएसु रुक्खेसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ताए सालताए पवालत्ताए पत्तत्ताए पुप्फत्ताए फलत्ताए बीयत्ताए विउति । ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा आहारेति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं, णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति, परिविद्धत्थं तं सरीरगं जाव सारूविकंड संतं । अवरेऽवि य णं तेसि रुक्खजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं जाव बीयाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जाव णाणाविहसरीरपुग्गलविउव्विया । ते जीवा कम्मोववन्नगा भवंतीतिमक्खायं ॥ सू० ४६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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