________________
२०६
सूत्रकृतांग सूत्र
इस दृष्टि से पहले जिन ३६३ मतवादियों का उल्लेख किया गया था, उनका समावेश अधर्मस्थान में ही हो जाता है, क्योंकि वे भी धर्मपक्ष से रहित और मिथ्या हैं । ये ३६३ मतमतान्तर चार कोटि में परिगणित हैं - ( १ ) क्रियावादी ( २ ) अक्रियावादी (३) अज्ञानवादी ( ४ ) विनयवादी । इन चारों कोटि के मतों का विवेचन पहले किया जा चुका है, अतः यहाँ उस सम्बन्ध में विस्तार नहीं दे रहे हैं । यद्यपि ये चारों मतवादी मोक्ष और निर्वाण को भी मानते हैं, उनके नाम से भोले-भाले अनुयायियों को वे उपदेश भी देते हैं, प्रवक्ता भी बनते हैं । परन्तु उनकी बातें थोथी हैं । जैसे बौद्धों की मान्यता है - " ज्ञानसन्तति का आधार कोई आत्मा नहीं है, बल्कि ज्ञानसन्तति ही आत्मा है । उस ज्ञानसन्तति का कर्मसन्तति के प्रभाव से अस्तित्व है, जो संसार कहलाता है । और उस कर्मसन्तति के नाश के साथ ही ज्ञानसन्तति का नाश हो जाता है । उसी को मोक्ष या निर्वाण कहते हैं ।" इस प्रकार की मान्यता वाले बौद्ध यद्यपि मोक्ष या निर्वाण का नाम अवश्य लेते हैं, और उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न भी करते हैं, परन्तु वह सब अज्ञानजनित मान्यता के कारण बेकार है । कारण यह है कि ज्ञानसन्तति से कथंचित् भिन्न और उसका आधार एक आत्मा अवश्य है, अन्यथा जिसको मैंने देखा है उसी को स्पर्श करता हूँ, इत्यादि संकलनात्मक ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए ज्ञानसन्तति से भिन्न उसका आधार एक आत्मा अवश्य मानना चाहिए । वह आत्मा अविनाशी है, इसलिए मोक्षावस्था में उसके अस्तित्व का नाश मानना भी बौद्धों का अज्ञान है । यदि मोक्ष में आत्मा का अस्तिव ही न रहे तो फिर कौन ऐसा मूर्ख होगा जो ऐसे निःसार मोक्ष की चाह करेगा ? अतः बौद्धमत मिथ्या और अधर्मपक्ष के अन्तर्गत मानने योग्य है ।
अब रहा सांख्यमत, वह भी अधर्मपक्ष की कोटि में आता है, क्योंकि वह आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है और ऐसा मानने पर जीव के संसार और मोक्ष दोनों ही नहीं बन सकते । चतुविध गतियों में आत्मा का परिणमन- -गमन होना ही संसार है । और अपने स्वाभाविक गुणों (आत्म-स्वभाव ) में सदा परिणत होते रहना मोक्ष है । ये दोनों बातें कूटस्थ नित्य आत्मा में संभव नहीं होतीं, अतः सांख्यमत त्याज्य है । नैयायिक और वैशेषिक मत भी युक्तिरहित तथा आग्रही होने के कारण अधर्मपक्ष में ही समाविष्ट करने योग्य है ।
मूल पाठ
ते सव्वे पावाउया आदिकरा धम्माणं णाणापन्ना णाणाछन्दा गाणासीला णाणादिट्टी णाणारुई णाणारंभा णाणाज्झवसाणासंजुत्ता एवं महं मंडलिबंध किच्चा सव्वे एगओ चिट्ठन्ति । पुरिसे य सागणियाणं इङ्गालाणं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org