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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
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रहते हैं । इन अनगार भगवन्तों के किसी भी प्रकार का (चार प्रकार के प्रतिबन्धों में से) प्रतिबन्ध नहीं होता। वे पवित्र, सात्विक, हलके-फुलके, निष्परिग्रह, निर्ग्रन्थ होते हैं और तप-संयम से अपनी आत्मा को विकसित करते रहते हैं।
वे भाग्यशाली निर्ग्रन्थ अपने जीवन निर्वाह के लिए विविध तपस्याओं (एक उपवास से लेकर छह महीने के तप तक) का अनुष्ठान करते रहते हैं। इसके अतिरिक्त वे विविध प्रकार के अभिग्रह भी धारण करते हैं। जैसे कि कोई उत्क्षिप्तचारी होते हैं, कई निक्षिप्तचारी, कई अन्त-प्रान्त, रूक्ष, नीरस आहार को ही ग्रहण करते हैं । भिक्षा भी विविध प्रकार से लेते हैं । कई अज्ञात कुलों एवं व्यक्तियों से ही आहार लेते हैं । कई आयंबिल, निविकृतिक, ऊनोदरी आदि तप करते हैं। कई दण्डासन, लगुडासन आदि विविध आसनों से सोने, बैठने का अभिग्रह लेते हैं। कोई अपने शरीर को खुला रखते हैं, कोई आतापना लेते हैं, शरीर को नहीं खुजलाते, केश, नख, रोम आदि को सजाते-सँवारते नहीं, शरीर शृंगार बिलकुल नहीं करते हैं। इस प्रकार विविध तपस्याओं एवं संयम प्रक्रियाओं के साथ वे अनेक वर्षों तक अपने श्रमणधर्म का पालन करते रहते हैं। जीवन के अन्तिम दिनों में वे आमरण अनशन करके संलेखना-संथारापूर्वक शरीर छोड़ते हैं। जिस प्रयोजन से वे साधुत्व ग्रहण करते हैं, उसके लिए हर प्रकार से सचेष्ट रहते हैं। भूमिशयन, केशलोच, ब्रह्मचर्य साधना, भिक्षावृत्ति आदि सब संयम-क्रियाएँ भी उसी दृष्टि से करते हैं ।
___ औपपातिक सूत्र में अनगार भगवन्तों के जो गुण बताये गये हैं, वे सभी गुण इस दूसरे स्थान के धर्मपक्षीय अधिकारी में उपलब्ध होते हैं। यहाँ तक कि मानअपमान, निन्दा-प्रशंसा, गाली-गलौज, डाँट-फटकार, प्रहार आदि तथा अन्य समस्त उपसर्गों और परीषहों के आने पर समभावपूर्वक सहते हैं।
इस प्रकार संयम की उत्तम आराधना करके वे अपने अन्तिम श्वास के साथ अनन्त, सर्वोत्तम, निराबाध, निरावरण, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्राप्त कर लेते हैं। उसके पश्चात् तो उनका सिद्ध, बुद्ध, मुक्त तथा समस्त दुःखों से रहित हो जाना निश्चित होता है ।
कई महात्मा, जो उसी भव से मुक्त नहीं होते, वे उच्च ऋद्धि, द्य ति, पराक्रम यश, बल, प्रभाव और सुख वाले देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। उनकी गति, मति, स्थिति तथा भविष्य सभी उज्ज्वल तथा कल्याणकार होते हैं। उनका रूप, वर्ण, गन्ध, स्पर्श, संघात, संस्थान, ऋद्धि, द्युति, कान्ति, वृत्ति, लेश्या और तेज सभी दिव्य होते हैं । अधिक क्या कहें, वे उत्तम जाति के देव बनते हैं, वहाँ से च्यवन करके महा विदेह क्षेत्र में या अन्य कर्म भूमि में मानवभव में उत्पन्न होकर वे मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं।
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