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सूत्रकृतांग सूत्र
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में समर्थ होते हैं । ( सोहो इव दुद्धरिसा) जैसे सिंह दूसरे पशुओं से दबता नहीं, हारता नहीं, वैसे ही वे महामुनि परीषहों और उपसर्गों से दबते और हारते नहीं । (मंद इव अप्पकंपा ) जैसे मन्दर पर्वत कम्पित नहीं होता, इसी तरह वे महात्मा खतरों, उपसर्गों और भयों से काँपते नहीं । (सागरो इव गंभीरा) वे सागर की तरह गंभीर होते हैं, यानि हर्ष - शोकादि से व्याकुल नहीं होते । (चंदो इव सोमलेस्सा) उनकी प्रकृति चन्द्रमा के समान शीतल एवं सौम्य होती है । ( सूरो इव दित्ततेया) वे सूर्य के समान तेजस्वी होते हैं । ( जच्चकंचणगं व जातरूवा) जैसे उत्तम जाति के सोने में से मल नहीं निकलता, वैसे ही उन महात्माओं के कर्ममल नहीं लगता । ( वसुंधरा इव वासविहा) वे पृथ्वी के समान सभी स्पर्शो को सहन करते हैं । ( सुहुहुया सणोविव तेयसा जलता) अच्छी तरह होम (प्रज्वलित) की हुई अग्नि के समान वे तेज से जाज्वल्यमान रहते हैं । (तेसि भगवंताणं कत्यवि पडिबंधे णत्थि भवइ) उन भाग्यशाली महामाओं के लिए कहीं भी प्रतिबन्ध ( रुकावट ) नहीं है । (से पडिबंधे चउब्विहे पण्णत्ते) वह प्रतिबन्ध चार प्रकार का होता है। (तं जहा - अंडए इ वा पोयए इ वा उग्गहे इ वा पग्गहे इवा) वह प्रतिबन्ध चार प्रकार से होता है- जैसे कि अण्डे से उत्पन्न होने वाले हंस, मोर आदि पक्षियों से तथा बच्चे के रूप में उत्पन्न होने वाले हाथी आदि के बच्चों से, एवं निवास स्थान तथा पीठ, फलक आदि उपकरणों से, विहार ( विचरण) में प्रतिबन्ध होता है परन्तु उनके विहार ( विचरण ) में ये चारों ही प्रतिबन्ध नहीं हैं । (जन्नं जन्नं दिसं इच्छंति तन्न तन्न' दिसं अपडिबद्धा) वें जिस-जिस दिशा में जाना चाहते हैं, उस उस दिशा में प्रतिबन्ध रहित चले जाते हैं । ( सुइभूया लहुभूया अप्पगंथा संजमेणं तवसा अप्पानं भावेमाणा विहरंति) वे पवित्रहीन हृदय और परिग्रहरहित होने से हलके-फुलके, अल्पग्रन्थ एवं बन्धनहीन महात्मा संयम और तपस्या से अपनी आत्मा को भावित (सुवासित) करते हुए विचरण करते हैं । (तेसि भगवंताणं इमा एताख्वा जायामायावित्ति होत्था ) उन भाग्यशाली महात्माओं की संयमयात्रा के निर्वाहार्थ ऐसी कुछ जीविकावृत्ति होती है । (तं जहा - चउत्थे भत्ते छट्ठे भत्ते अट्ठमे भत्ते इसमे भत्ते दुवालसमे भत्ते चउदसमे भत्ते ) जैसे कि एक दिन का उपवास, दो दिन का उपवास, तीन, चार, पाँच तथा छह दिन का उपवास । (अद्धमासिए भत्ते मासिए भत्ते दोमासिए भत्ते तिमासिए चम्मासिए पंचमासिए छम्मासिए) एक पक्ष का उपवास, मासिक उपवास, द्विमासिक तीन मास का, चार मास का, पाँच मास का एवं छह मास का उपवास वे करते हैं । ( अदुत्तरं उक्खित्तचरगा, णिक्खित्तचरगा, उक्खित्तणिविखत्तचरगा, अंतचरगा, पंतचरगा, लहवरगा, समुदाणचरगा, संसट्ठचरगा, असंसठ्ठचरगा, तज्जातसंस ठचरगा) इसके सिवाय किसी का अभिग्रह होता है - वे इंडिया में से निकाला हुआ ही अन्न लेते हैं, कोई महात्मा परोसने के लिए इंडिया में से निकालकर फिर उसमें रखा हुआ ही
उपवास,
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