SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ सूत्रकृतांग सूत्र पैर, आँख, नाक, कान, भुजा आदि अंगों का छेदन कर देना, सर्वस्व हरण करके निकाल देना, सिंह और साँड़ की पूछ के साथ बाँधकर मार डालना, शूली पर चढ़ाना, तीखे शूलों से बींध डालना, अन्न-पानी बन्द कर देना, जीवन भर जेल में डाल कर सड़ाना, दावाग्नि में झोंककर भस्म कर देना, कौओं से माँस तुचवाना, कुमौत मारना इत्यादि । इस प्रकार प्राणियों को घोर दण्ड देने वाले वे निर्दय व्यक्ति अधर्मपक्ष में स्थित हैं, यह जानना चाहिए। इन क्रू र कर्मा पुरुषों के आभ्यन्तर परिवार के लोग ये हैं-~-माता, पिता, भाई, बहन, भार्या, पुत्र, पुत्री और पुत्रवधू आदि । इनका थोड़ा-सा अपराध होने पर वे इन्हें भयंकर सजा देते हैं। सर्दी के दिनों में वे इन्हें ठंडे पानी में डाल देते हैं तथा मित्रद्वषप्रत्ययिक क्रियास्थान में जिन दण्डों का वर्णन किया गया है, वे सभी प्रकार के दण्ड इन्हें वे देते हैं। इस तरह निर्दयतापूर्वक अपने बाद और आभ्यन्तर परिवार के साथ व्यवहार करने वाले वे अधर्मपक्षीय व्यक्ति अपने परलोक को नष्ट करते हैं। अपने क र कर्मों के फलस्वरूप वे सदा दुःख, शोक, पश्चात्ताप, पीड़ा, संताप से घिरे रहते हैं । इनसे वे कभी छुटकारा नहीं पाते हैं। इसी प्रकार कंचन, कामिनी और शब्दादि विषयों के अत्यन्त आसक्त वे अधार्मिक पुरुष चार से लेकर दस साल तक या इससे न्यूनाधिक भोगों का सेवन करके प्राणियों के साथ वैर बाँधकर एवं अधिकाधिक पापों का संचय करके उस पाप के भार से अत्यन्त दब जाते हैं। जिस तरह लोहे या पत्थर के गोले को पानी में फेंकने पर वह पानी की सतह को पार करके पृथ्वीतल में बैठ जाता है उसी तरह ये पापी जीव भी पाप के भार से इतने दब जाते हैं कि नरक की ऊपरी भूमियों को पार करके, तथा रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों को लांघकर नीचे के नरक-तल में जा पहुँचते हैं, - उसी नरक में जाकर अपना डेरा डालकर चिरकाल के लिए वहीं बस जाते हैं । यह है अधर्मस्थान के अधिकारी की वृत्ति-प्रवृत्ति का स्वरूप ! ___ मूल पाठ ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणंसंठिया णिच्चंधकारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइप्पहा मेदवसामसरुहिरपूयपडलचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुन्भिगंधा कण्हा अगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा णरगा. असुभा णरएसु वेयणाओ। णो चेव णरएसु नेरइया णिहायंति वा पयलायति वा सुई वा रति वा धिति वा मतिं वा उवलभंते। ते णं तत्थ उज्जलं पगाढं विउलं कड्यं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy