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________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान १७१ यवन आदि अनार्य पुरुषों के जो दोष बताये गये हैं उन दोषों से रहित जो पुरुष उत्तम आचार में प्रवृत्त हैं, वे ही धार्मिक हैं, धर्मपक्ष के अधिकारी हैं। उनका जो स्थान है वह धर्म-स्थान या धर्मपक्ष है । यही स्थान आर्य है, केवलज्ञान की प्राप्ति का कारण है, न्यायसंगत है, मुक्ति, सिद्धि और निर्वाण का मार्ग है । अत: विवेकी पुरुष को इस द्वितीय स्थान-धर्मपक्ष का ही अवलम्बन लेना चाहिए। मूल पाठ अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ । जे इमे भवंति आरणिया आवसहिया गामणियंतिया कण्हुईरहस्सिया जाव ते तओ विष्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयत्ताए तमूताए पच्चायति । एस ठाणे अणारिए अकेवले जाव असव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहू । एस खलु तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिए ॥ सू० ३४ ॥ संस्कृत छाया अथाऽपरस्तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकस्य विभंगः एवमाख्यायते । ये इमे आरण्यका आवसथिकाः ग्रामान्तिकाः क्वचिद्राहसिकाः यावत् ते ततो विप्रमुच्यमाना भूयः एलमूकत्वाय तमस्त्वाय प्रत्यायन्ति-एतत् स्थानमनार्यम् अकेवलं यावत् असर्वदुःखप्रहीणमार्गमेकान्तमिथ्या असाधु । एष खलु तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकस्य विभंगः एवमाख्यातः ॥ सू० ३४ ।। अन्वयार्थ (अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मिस्सगस्स विभंगे एवमाहिज्जइ) इसके पश्चात् तीसरा स्थान, जो मिश्रपक्ष कहलाता है, उसका विचार इस प्रकार है- (जे इमे आरणिया आवसहिया गामणियंतिया कण्हुईरहस्सिया जाव भवंति) इसके अधिकारी वन में रहने वाले तापस हैं, जो घर या कुटिया बनाकर रहते हैं या ग्राम के निकट निवास करने वाले तापस या फिर एकान्त में रहने वाले या किसी गुप्त क्रिया का अनुष्ठान करने वाले पुरुष हैं। (ते तओ विप्पमुच्चमाणा भुज्जो एलमूयत्ताए तमूयत्ताए पच्चायंति) वे यहाँ से देह छोड़ने पर किल्वषी देव होते हैं, फिर वहाँ से लौटकर इस लोक में पुनः पुन: गूगे और अन्धे होते हैं। (वे जिस मार्ग का सेवन करते हैं, उसे मिश्र स्थान कहते हैं) (एस ठाणे अणारिए अकेवले जाव असव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहु) यह स्थान अनार्य है यानी आर्य पुरुषों के द्वारा सेवित नहीं है, तथा यह केवलज्ञान की प्राप्ति कराने वाला नहीं है, यहाँ तक कि समस्त दुःखों से छुटकारा दिलाने वाला यह मार्ग नहीं है। यह स्थान एकान्त मिथ्या और खराब है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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