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________________ १७० सूत्रकृतांग सूत्र है । (इह खलु पाईणं वा पडीणं वा उदोणं वा दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति) इस मनुष्यलोक में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में अनेक प्रकार के मनुष्य रहते हैं। (तं जहा--आरिया वेगे, अणारिया वेगे, उच्चागोआ वेगे, णीयागोया वेगे, कायमंता बेगे, हस्समंता वेगे, सुवन्ना वेगे, दुवन्ना वेगे, सुरूवा वेगे, दुरूवा वेगे) वे इस प्रकार हैं-कई आर्य हैं, कई अनार्य हैं, कई विशालकाय हैं, कई ठिगने कद के हैं, कई सुन्दर वर्ण वाले और कई खराब वर्ण के होते हैं, कई सुरूप है तो कई कुरूप ! (तेसि च णं खेत्तवत्थूणि परिगहियाइं भवति) इन मनुष्यों के खेत और मकान परिग्रह होते हैं। (एसो आलावगो जहा पोंडरीए तहा णेयव्वो) ये सब बातें, जो पुण्डरीक के प्रकरण में कही हैं, यहाँ भी कहनी चाहिए। (तेणेव अभिलावेण जाव सव्वोवसंता सम्वत्ताए परिनिव्वुडेत्ति बेमि) और उसी बोल के अनुसार जो पुरुष समस्त कषायों से उपशान्त हैं यहाँ तक कि समस्त इन्द्रिय-भोगों से निवृत्त हैं, वे धर्मपक्ष वाले हैं। यह मैं (सुधर्मा स्वामी) कहता हूँ । (एस ठाणे आरिए केवले जाव सव्वदुक्खपहीणमग्गे एगतसम्मे साहु) यह स्थान (द्वितीय स्थान) आर्य है, यावत् केवलज्ञान को प्राप्त कराने वाला तथा समस्त दुःखों का नाशक है । यह एकान्त सम्यक् और उत्तम स्थान है। (दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए) यह द्वितीय स्थान, जो धर्मपक्ष है, उसका विचार इस प्रकार किया गया है। व्याख्या द्वितीय स्थान : धर्मपक्ष का स्वरूप और विश्लेषण प्रथम स्थान अधर्मपक्ष का वर्णन करने के पश्चात् इस सूत्र में धर्मपक्ष नामक द्वितीय स्थान का निरूपण किया गया है। अहिंसा, सत्य आदि धर्माचरण करने वाले या सम्यग्दृष्टि एवं शुभ (पुण्य) कार्यों में संलग्न मानव धर्मपक्ष के अधिकारी होते हैं । जगत् में धर्म का आचरण करने वाले बहुत से मनुष्य इस विश्व में हैं । वे विश्व के कोने-कोने में हैं। उनमें से कई आर्यवंश में उत्पन्न पुण्यात्मा भी हैं, इसके विपरीत कई शक, यवन, बर्बर आदि अनार्यजन भी ऐसे पुण्यात्मा हैं जो धर्मपक्षीय हैं। कई विशालकाय हैं तो कई ह्रस्वकाय हैं, कई सुन्दर वर्ण वाले हैं तो कई बुरे वर्ण वाले हैं। कई सुरूप हैं तो कई कुरूप । मतलब यह है कि सभी प्रकार के रंग, रूप, वर्ण, जाति और देश में ऐसे धर्मपक्षीय जन होते हैं । वे कैसे होते हैं ? इसके समाधानार्थ शास्त्रकार कहते हैं कि पुण्डरीक नामक अध्ययन में इसका विस्तृत रूप से वर्णन किया है। वहाँ जिस प्रकार का वर्णन किया गया है, वही लक्षण धर्मपक्षीय व्यक्ति का समझना चाहिए । यहाँ तक कि धर्मपक्षीय पुरुषों के समस्त कषाय उपशान्त होते हैं। वे समस्त इद्रिय-विषयों की आसक्ति से निवृत्त होते हैं। इस सम्बन्ध में इतना विशेष समझ लेना चाहिए कि शक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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