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________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान १५१ करता है । (अदुवा अणुगामिए) कोई पापी किसी स्थान पर जाते हुए पुरुष के पीछे-पीछे उसका धन हरण करने जाता है। (अदुवा उवचरए) अथवा वह पाप करने के लिए किसी की सेवा करता है, (अदुवा पडिपहिए) अथवा वह धन हरण करने के लिए किसी पुरुष के सम्मुख जाता है, (अदुवा संधिछेदए) कोई पापी दूसरे के धन को चुराने के लिए उसके घर में सेंघ लगाता है, (अदुवा गंठिछेदए) अथवा वह किसी की गाँठ काटता है, (अदुवा उरभिए) अथवा वह भेड़ चराता है, (अदुवा सोवरिए) अथवा वह सूअर पालता या चराता है, (अदुवा वागुरिए) अथवा वह जाल फेंककर मृग आदि को पकड़ता है, (अदुवा साउणिए) अथवा वह जाल बिछाकर पक्षियों को फंसाता है और पकड़ता है, (अदुवा मच्छिए) अथवा वह मछलियों को पकड़ता है, (अदुवा गोघायए) अथवा वह गायों का घात करता है, यानी कसाई का काम करता है, (अदुवा गोवालए) अथवा वह गोपालन करता है, (अदुवा सोवणिए) अथवा वह कुत्तों को पालता है, (अदुवा सोवणियंतिए) अथवा वह कुत्तों के द्वारा जानवरों का शिकार करता है, (एगइयो आणुगमियभावं पडिसंधाय तमेव अणुगामियाणुगामियं हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ) कोई पापी पुरुष ग्राम आदि में जाते हुए किसी धनिक के पीछे-पीछे जाकर उस व्यक्ति को डंडे आदि से मारकर अथवा तलवार आदि से काटकर अथवा शूल आदि से बींधकर उसे घसीटकर अथवा चाबुक आदि से मारकर अथवा उसकी हत्या करके उसके. धन को लूटकर अपना आहार उपार्जन करता है। (इति से महया पावेहि कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ) इस प्रकार महापाप करने वाला पुरुष जगत् में महापापी के नाम से प्रसिद्ध होता है। (से एगइओ उवचरयभावं पडिसंधाय तमेव उवचरियं हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ) कोई पापी किसी धनवान की सेवावृत्ति स्वीकार करके उसी अपने सेव्य (स्वामी) को ही मार-पीटकर तथा उसका छेदन, भेदन, घात और जीवन का नाश करके उसके धन का हरण करके अपना आहार उपार्जन करता है । (इति से महया पावेहि कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ) इस प्रकार वह महापापी व्यक्ति अपने महापाप कर्मों के कारण महापापी के नाम से से प्रख्यात होता है। (से एगइओ पाडिपहियभावं पडिसंधाय तमेव पाडिपहे ठिच्चा हंता छेत्ता भेत्ता लुपइत्ता विलुपइत्ता उद्दवइत्ता आहारं आहारेइ) कोई पापी जीव किसी ग्राम आदि से आये हुए किसी धनाढ्य के सम्मुख जाकर उसका मार्ग रोककर उसे मार-पीट, छेदन-भेदन आदि करके उसके धन को लूटकर अपनी जीविका उपार्जन करता है । (इति से महया पार्वहिं कम्मेहि अत्ताणं उवक्खाइत्ता भवइ) इस प्रकार महान् पापकर्म करने के कारण जगत् में वह अपने आपको महापापी के नाम से विख्यात कर लेता है। (से एगइओ संधिछेबगभावं पडिसंधाय तमेव संधि छेत्ता भेत्ता जाव इति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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