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सूत्रकृतांग सूत्र और स्पर्श होता है, दूसरे समय में वेदन होता है और तीसरे समय में निर्जरा हो जाती है । जैन सिद्धान्त यह है कि योगों के कारण कर्मों का बन्ध होता है, और कषायों के कारण उनकी स्थिति होती है। इसलिए जहाँ कषाय नहीं हैं, वहाँ स्थिति बन्ध नहीं होता । यहाँ मूल पाठ में ऐपिथिक क्रिया की जो स्थिति बताई है, उसे भी औपचारिक समझना चाहिए, क्योंकि वहाँ स्थिति का कारण कषाय सर्वथा नष्ट हो गया है । आशय यह है कि योग के कारण निष्कषाय वीतराग पुरुष (ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थानवर्ती) के इसका बन्ध तो हो जाता है, लेकिन कषाय न होने से स्थिति का बन्ध नहीं होता। यह ऐर्यापथिकी क्रिया का स्वरूप है।
निष्कर्ष यह है कि मूल पाठ में जो पंचसमिति, तीन गुप्तियों आदि से युक्त सुविहित सामान्य साधु को ऐपिथिक क्रिया की प्राप्ति बताई है, वह सम्भाव्य वर्तमान की दृष्टि से समझनी चाहिए । अर्थात् वर्तमान में उक्त साधु में ऐर्यापथिक क्रिया न होने पर भी भविष्य में ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थान की प्राप्ति होने पर वही साधु ऐर्यापथिकी क्रिया को प्राप्त करेगा, जिसमें मूल पाठ में उक्त योग्यता होगी। जिस साधु में मूलपाठ में उक्त योग्यता नहीं है, वह उक्त वीतराग अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकता और वीतराग अवस्था को प्राप्त किये बिना कोई भी आत्मा ऐपिथिक क्रियास्थान को प्राप्त नहीं कर सकता।
यही कारण है कि ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थानवर्ती पुरुष के सिवाय शेष प्राणियों को साम्परायिक क्रिया का बन्ध होता है, क्योंकि उनमें मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग विद्यमान रहते हैं, जबकि उक्त वीतराग पुरुष में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद एबं कषाय नहीं होते, सिर्फ योग विद्यमान रहते हैं, इसलिए उन्हें ऐर्यापथिक क्रिया का बन्ध होता है । मूल पाठ में उक्त सुविहित साधु के मिथ्यात्व, अविरति तथा प्रमाद न होने पर भी कषाय की सूक्ष्म मात्रा रहती है, इसलिए उन्हें ऐपिथिकी क्रिया वर्तमान में नहीं लगती, किन्तु वे ऐर्यापथिक क्रियास्थान के निकट अवश्य पहुँच जाते हैं।
यहाँ मूल पाठ में भूत, भविष्य एवं वर्तमानकालिक अरिहन्त भगवान के लिए तेरहवें क्रियास्थान का सेवन करना बताया गया है, वह भी औपचारिक ही समझना चाहिए । वस्तुत: वीतरागों का उपयोग उस क्रियास्थान में नहीं होता, अपितु उनका उपयोग सर्वथा निजस्वरूप में स्थित रहता है, वह कभी स्वरूप से बाहर नहीं जाता। इसलिए द्रव्ययोगों की प्रवृत्ति से वह क्रिया सयोगी अवस्था तक उनके होती रहती है, अरिहंत वीतरागों को वस्तुतः भावबन्ध नहीं होता, द्रव्यबन्ध ही होता है।
यद्यपि ऐर्यापथिक क्रियास्थान शुभ है, तथापि बन्ध की अपेक्षा से शास्त्रकार ने उसे 'सावज्जंति आहिज्जइ' कहकर 'सावद्य' बताया है। किन्तु यहाँ सावद्य का अर्थ पापयुक्त नहीं समझना चाहिए ।
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