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सूत्रकृतांग सूत्र स्कृत: अहितः अस्मिन् लोके, अहितः परिस्मन् लोके, संज्वलनः क्रोधन: पृष्ठमांसखादकश्चाऽपि भवति । एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिक सावद्यमाधीयते । दशमं क्रियास्थानं मित्रदोषप्रत्ययिकमित्याख्यातम् ॥सू० २६ ।।
अन्वयार्थ
(अहावरे इसमे किरियट्ठाणे मित्तदोसवत्तिएत्ति आहिज्जइ) इसके बाद दसवां क्रियास्थान मित्रदोषप्रत्ययिक कहलाता है, (से जहाणामए केइ पुरिसे माईहिं वा, पिईहि वा, भाईहिं वा, भइणोहिं वा, भज्जाहिं वा, धूयाहि वा, पुत्तेहिं वा, सुहाहि वा सद्धि संवसमाणे तेसिं अन्नयरंसि अहालहुगंसि वा अवराहसि सयमेव गुरुयं दंडं निवत्तेइ) जैसे माता, पिता, भाई, बहन, स्त्री, कन्या, पुत्र, पुत्रवधू आदि के साथ निवास करता हुआ कोई पुरुष इनके द्वारा छोटा-सा अपराध होने पर भी इन्हें भारी दण्ड देता है, (तं जहा-सीओवगवियडंसि वा कायं उच्छोलित्ता भवइ) जैसे कि वह ठंड के समय भगिनी आदि के शरीर को ठंडे जल में डाल देता है, या ठंडे जल में उछालता है। (उसिणोदगवियडेण वा कायं ओसिचित्ता भवइ) तथा गर्मी के दिनों में उनके शरीर पर अत्यन्त गर्म पानी छींटता है, (अगणिकाएणं कायं उवडहिता भवइ) अग्नि से उनके शरीर को जला देता है, या गर्म दाग देता है । (जोत्तेण वा, वेत्तेण वा, णेत्तेण वा, तयाइ वा, कण्णेण वा, छियाए वा, लयाए वा, अन्नयरेण वा, दवरएण पासाई उद्दालित्ता भवइ) जोत्र से, बेंत से, छड़ी से, चमड़े से, लता से, चाबुक से या किसी प्रकार की रस्सी से मारकर उनके बगल (पार्श्वभाग) की खाल उधेड़ देता है । (दंडेण वा, अट्ठीण वा, मुट्ठीण वा, लेलण वा, कवालेण वा कायं आउट्टित्ता भवइ) डंडे से, हड्डी से, मुक्के से, ढेले से, ठीकरे या खप्पर से मार-मारकर उनके शरीर को ढीला (जर्जर) कर देता है । (तहप्पगारे पुरिसजाए संवसमाणे दुम्मणा भवइ) ऐसे पुरुष के साथ घर में रहने वाला परिवार दुःखी रहता है, (पवसमाणे सुमणा भवइ) और उसके परदेश चले जाने पर वह (परिवार) सुखी हो जाता है । (तहप्पगारे पुरिसजाए दंडपासी दंडगुरुए दंडपुरक्कडे अहिए इमंसि लोगंसि अहिए परंसि लोगंसि संजलणे कोहणे पिट्ठमसि यावि भवइ) ऐसा व्यक्ति जो बगल में डंडा दबाये रहता है, जरा से अपराध पर भारी सजा (दण्ड) देता है, हर बात में दंड को आगे रखता है या दंड को आगे रखकर बात करता है, वह इस लोक में भी अपना अहित करता है और परलोक में भी अपना अहित करता है, हरदम ईर्ष्या से जलता रहता है, बात-बात में क्रोध करता है, दूसरों की पीठ पीछे निन्दा करता है या चुगली खाता है। (एवं खलु तस्स तप्पत्तियं साव
जंति आहिज्जइ) ऐसे व्यक्ति को मित्रदोषप्रत्ययिक पापकर्म का बन्ध होता है। (दसमे किरियट्ठाणे मित्तदोसवत्तिएत्ति आहिए) इस प्रकार दशवें मित्रदोषप्रत्ययिक क्रियास्थान का स्वरूप बताया गया।
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