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सूत्रकृतांग सूत्र
अन्वयार्थ (अहावरे चउत्थे दंडसमादाणे अकम्हादंडवत्तिएत्ति आहिज्जइ) इसके बाद चौथा क्रियास्थान अकस्माद्-दण्डप्रत्ययिक कहलाता है। (से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा जाव वणविदुग्गंसि वा मियवत्तिए, मियसंकप्पे. मियपणिहाणे, मियवहाए गंता) जैसे कोई व्यक्ति नदी के किनारे या किसी घोर जंगल में जाकर मग को मारने की प्रवृत्ति करता है, मृग को मारने का संकल्प करता है, मृग का ही ध्यान रखता है, और मृग को मारने के लिए ही चल पड़ता है, (एए मियत्तिकाउं अन्नयरस्स मियस्स वहाए उसु आयामेत्ता णं णिसिरेज्जा) 'यह मृग है' यों जानकर किसी एक मग को मारने के लिए वह व्यक्ति अपने धनुष पर बाण को खींचकर चलाए, (स मियं वहिस्सामित्ति कटु तित्तिरं वा, वट्टगं वा, चडगं वा, लावगं वा, कवोयगं वा, कविं वा, कविजलं वा विधित्ता भवइ) परन्तु उस मृग को मारने का आशय होने पर भी उसका बाण (तीर) लक्ष्य पर न गिरकर तीतर, बटेर, चिड़िया, लावक, कबूतर, बन्दर या कपिजल पक्षी पर कदाचित् जा गिरे तो वह उन प्राणियों का घातक होता है, (इह खलु से अन्नस्स अट्ठाए अन्न फुसति अकम्हादंडे) ऐसी दशा में वह पुरुष दूसरे के लिए प्रयुक्त दण्ड से दूसरे का घात करता है और वह दण्ड इच्छा न होने पर भी अकस्मात् हो जाता है, इसलिए इसे अकस्माद्दण्ड कहते हैं, (से जहाणामए केइ पुरिसे सालीणि वा, वीहीणि वा, कोद्दवाणि वा, कंगूणि वा परगाणि वा, रालाणि वा, णिलिज्जमाणे अण्णयरस्स तणस्स वहाए सत्थं णिसिरेज्जा) जैसे कोई पुरुष शाली, व्रीहि, कोद्रव (कोदों), कंगू, परक और राल नामक धान्यों (अनाजों) को शोधन (साफ) करता हुआ, किसी तृण (घास) को काटने के लिए शस्त्र (दाँती या हँसिया) चलाए, (से सामगं तणगं कुसुदगं छिदिस्सामित्ति कटु सालि वा, कोद्दवं वा, कंगुवा, परगं वा, रालं वा छिदित्ता भवइ) और 'मैं श्यामाक, तृण और कुमुद आदि घास को काटूं' ऐसा आशय होने पर भी लक्ष्य चूक जाने से शाली, व्रीहि, कोद्रव, कंगू, परक और राल के पौधों का ही छेदन कर बैठता है । (इति खलु अन्नस्स अट्ठाए अन्नं फुसति अकम्हादंडे) इसी प्रकार यह दण्ड भी घातक पुरुष का अभिप्राय न होने पर भी अचानक हो जाने के कारण अकस्माद्दण्ड कहलाता है। (एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्ज आहिज्जइ) इस प्रकार अकस्माद्दण्ड देने के कारण उस घातक पुरुष को सावध कर्म का बन्ध होता है, (चउत्थे दंडसमादाणे अकम्हादंडवत्तिएत्ति आहिए) यह चौथा क्रियास्थान अकस्माद्दण्डप्रत्ययिक कहा गया है ।
व्याख्या चतुर्थ क्रियास्थान : अकस्माद्दण्डप्रत्ययिक
इस सूत्र में शास्त्रकार ने चौथे क्रियास्थान का स्वरूप बताया है। दूसरे प्राणी
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