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________________ द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान ११३ एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिक सावद्यमाधीयते, प्रथमं दण्डसमादानं अर्थदण्डप्रत्ययिकमित्याख्यातम् ।। सू० १७ ॥ अन्वयार्थ (पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिएत्ति आहिज्जइ) प्रथम दण्डसमादान अर्थात् क्रियास्थान अर्थदण्डप्रत्ययिक कहलाता है। (से जहाणामए केइ पुरिसे आयहेउं वा, णाइहेउं वा, अगारहेउं वा, परिवारहेउं वा, मित्तहेउं वा, णागहेउं वा, भूतहेउं वा, जक्खहेउं वा तं दण्डं तसथावरेहि पाहि सयमेव णिसिरति) कोई पुरुष अपने लिए, अपने ज्ञातिजनों के लिए अथवा अपने घर या परिवार के लिए या अपने मित्र-जनों के लिए, या भूत, नाग, यक्ष आदि के लिए स्वयं त्रस और स्थावर प्राणियों को दण्ड देता है, (अण्णेणवि णिसिरावेति) अथवा पूर्वोक्त कारणों से दूसरे से इन्हें दण्ड दिलवाता है, (अण्णंपि णिसिरंतं समणुजाणइ) अथवा दूसरा दण्ड दे रहा हो, उसका अनुमोदन समर्थन करता है, (एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजंति आहिज्जइ) ऐसी स्थिति में उसे उस क्रिया के निमित्त से सावद्यकर्म का बन्ध होता है। (पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिएत्ति आहिए) इस प्रकार प्रथम क्रियास्थान अर्थदण्डप्रत्ययिक कहा गया। व्याख्या अर्थदण्डप्रत्यय क्रियास्थान का निरूपण इस सूत्र में अर्थदण्ड क्रियास्थान की व्याख्या की गई है। कई मतवादी सार्थक क्रियाओं से जनित दण्ड (हिंसा) को पापकर्मवन्धकारक नहीं मानते, परन्तु भगवान महावीर की दृष्टि में वह पापकर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि जिस किसी भी प्रवृत्ति में, फिर वह चाहे किसी भी अनिवार्य कारणवश या किसी घनिष्ठ सम्बन्धी के लिए भी क्रिया की गई हो, वह अवश्य ही पापकर्मबन्ध का कारण होगा, हालांकि कर्मबन्ध हलका होगा । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने लिए अथवा परिवार, ज्ञातिजन, गृह, मित्र एवं किसी में प्रविष्ट नाग, भूत या यक्ष आदि के निवारणार्थ त्रस-स्थावर प्राणियों की हिंसा स्वयं करता है, दूसरे से हिंसा करवाता है, हिंसा करने वालों की अनुमोदना करता है, उस पुरुष को प्रथम क्रियास्थान अर्थदण्डप्रत्ययिक के अनुष्ठान का पापबन्ध होता है । यही प्रथम क्रियास्थान का स्वरूप है। मूल पाठ अहावरे दोच्चे दंडसमाक्षणे अणट्ठादंडवत्तिएत्ति आहिज्जइ । से जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति, ते णो अच्चाए, णो अजिणाए, णो भंसाए, जो सोणियाए एवं हिययाए, पित्ताए, वसाए, पुच्छाए, बालाए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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