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सूत्रकृतांग सूत्र
(८) हमेशा चिन्ता में डूबे रहना, संकल्प-विकल्प में लीन रहना, उदास रहना, या दुश्चिन्तन करते रहना अध्यात्मप्रत्ययदण्ड है ।
(६) जाति, कुल, बल, रूप, ज्ञान, तप, लाभ, ऐश्वर्य आदि के मदों के कारण दूसरों को हीन या नीच समझना मानप्रत्ययदण्ड है।
(१०) अपने साथ रहने वालों में से किसी का जरा-सा भी अपराध होने पर उसे भारी सजा (दण्ड) देना, अथवा अपने साथियों के साथ द्रोह करना, मित्र-द्वेषप्रत्ययदण्ड है।
(११) कपटपूर्वक अनर्थकारी प्रवृत्ति या धोखेबाजी, ठगी आदि करना मायाप्रत्ययदण्ड है।
(१२) तृष्णा, लोलुपता या आसक्ति के कारण लोभवश हिंसाजनित प्रवृत्ति करना लोभप्रत्ययदण्ड है।
(१३) तेरहवाँ क्रियास्थान ऐर्यापथिक है, जो धर्महेतुक प्रवृत्ति का है। जो इस प्रकार की प्रवृत्ति धीरे-धीरे बढ़ाते हैं, वे यतनापूर्वक समस्त प्रवृत्ति करते हैं, पाँच समिति एवं त्रिगुप्ति से युक्त, जितेन्द्रिय, निःस्पृही एवं अपरिग्रही होते हैं। अन्ततोगत्वा वे निर्वाण प्राप्त करते हैं।
इस प्रकार प्रारम्भ के १२ क्रियास्थान अधर्महेतुक प्रवृत्ति के निमित्त हैं, हिंसा पूर्ण हैं, इनसे साधक को दूर रहना चाहिए; जबकि यह १३वाँ क्रियास्थान निर्वाण के अभिलाषियों, मुमुक्षुओं के लिए आचरणीय है।
मूल पाठ पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिएत्ति आहिज्जई । से जहाणामए केइ पुरिसे आयहेउं वा, णाइहेउं वा, अगारहेडं वा, परिवारहेउं वा, मित्तहेउं वा, णागहेउं वा, भूतहेउं वा, जक्खहेउं वा, तं दंडं तसथावरेहि पाहि सयमेव णिसिरिति, अण्णणवि णिसिरावेति, अण्णंपि णिसिरंतं समणुजाणइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जंति आहिज्जइ, पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिएत्ति आहिए ॥ सू० १७॥
__ संस्कृत छाया प्रथमं दण्डसमादानमर्थदण्डप्रत्ययिकमित्याख्यायते । तद्यथा नाम कश्चित् पुरुष: आत्महेतोर्वा, ज्ञातिहेतोर्वा, अगारहेतोर्वा, परिवारहेतो, मित्रहेतोर्वा, नागहेतोर्वा, भूतहेतोर्वा, यक्षहेतोर्वा तं दंडं त्रसस्थावरेषु प्राणेषु स्वयमेव निसृजति, अन्येनाऽपि निसर्जयति, अन्यमपि निसृजन्तं समनुजानाति
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