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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
प्रथम अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी है। अब द्वितीय अध्ययन की व्याख्या की जाती है । प्रथम अध्ययन में पुष्करिणी और पुण्डरीक के दृष्टान्त से यह समझाया गया है कि मोक्ष-प्राप्ति के सम्यक् उपाय को न जानने वाले परतीर्थी कर्मबन्धन से मुक्त नहीं होते, किन्तु सम्यक् श्रद्धा से पवित्र हृदय, राग-द्वेषरहित, विषय-कषायों से उपशान्त उत्तम साधु ही कर्मबन्ध को तोड़कर मोक्ष-पद के भाजन होते हैं और दूसरों को भी वे मोक्ष के अधिकारी बनाते हैं। प्रश्न होता है जीव किन कारणों से कर्मबन्धन में पड़ता है और किनसे कर्मबन्धन से मुक्त हो सकता है ? इसी प्रश्न के उत्तर में इस दूसरे अध्ययन की रचना हुई है। सामान्यतया यह माना जाता है'क्रियातः कर्म' क्रिया से कर्मबन्ध होता है, पर ऐसी भी क्रिया होती है, जो बन्धनों से मुक्त कराती है । इस अध्ययन में बारह प्रकार के क्रियास्थानों से बन्धन और तेरहवें क्रियास्थान से मुक्ति बताई गई है।
___ अध्ययन का संक्षिप्त परिचय इस अध्ययन का नाम क्रियास्थान है। क्रियास्थान का अर्थ है-प्रवृत्ति का निमित्त । विविध प्रकार की प्रवृत्तियों के विविध कारण होते हैं। इन कारणों को प्रवृत्ति-निमित्त या क्रियास्थान कहते हैं । प्रस्तुत अध्ययन में इन क्रियास्थानों के विषय में कहा गया है कि जो व्यक्ति कर्मक्षय करना चाहता है, वह १२ प्रकार के क्रियास्थानों को पहले जान ले, और फिर उनका त्याग कर दे तथा तेरहवें क्रियास्थान को मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्ति करने हेतु अपनाए । जो पुरुष इस प्रकार करता है, वह अवश्य ही मुक्ति का अधिकारी होता है।
क्रियास्थान मुख्यतया दो प्रकार के हैं अधर्म क्रियास्थान और धर्म क्रियास्थान। अधर्म क्रियास्थान के १२ भेद हैं--(१) अर्थदण्ड, (२) अनर्थदण्ड, (३) हिंसादण्ड, (४) अकस्मातूदण्ड, (५) दृष्टिविपर्यासदण्ड, (६) मृषाप्रत्ययदण्ड, (७) अदत्तादानप्रत्ययदण्ड, (८) अध्यात्मप्रत्ययदण्ड, (६) मानप्रत्ययदण्ड, (१०) मित्रदोषप्रत्ययदण्ड, (११) माया प्रत्ययदण्ड, (१२) लोभप्रत्ययदण्ड ।
ये १२ अधर्म क्रियास्थान एवं १ धर्म क्रियास्थान, यों इन १३ क्रियास्थानों का निरूपण प्रस्तुत अध्ययन का विषय है।
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