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________________ १०४ सूत्रकृतांग सूत्र दोषों से रहित शुद्ध, एषणीय, कल्पनीय, प्रासुक आहार भी केवल संयम और शरीर के निर्वाहार्थ लेते हैं, रसलोलुपता की दृष्टि से नहीं लेते । वे समय के अनुसार ही सारी क्रियाएँ करते हैं, व्यर्थ की एक भी सावध क्रिया नहीं करते । वे अन्न के समय में अन्न लेते हैं, पानी के समय में पानी पीते हैं, वस्त्र के समय वस्त्र परिधान करते हैं और शयन के समय में शय्या बिछाते हैं। इस प्रकार उनके आहार, विहार, नीहार आदि सब कार्य नियमित, यतना से युक्त एवं उपयोगपूर्वक होते हैं, अन्यथा नहीं होते। वे अठारह पापों से निवृत्त होकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना करते हैं। वे साधु इन्द्रियों और मन को वश में करते हैं, जीवहिंसा दिजनक कार्यों से दूर रहते हैं, चार कषायों को भी उपशान्त कर देते हैं, वे इहलोक-परलोक सम्बन्धी कामना नहीं करते हैं । साधु इस प्रकार की आकांक्षा न करे कि मैंने जो शास्त्राध्ययन (ज्ञानाराधन) किया है, जो तपश्चरण किया है, नियमों का पालन किया है, नाना प्रकार के अभिग्रह धारण किये हैं, शरीर-यात्रा के निर्वाहार्थ शुद्ध प्रासुक आहार का सेवन किया है, एवं धर्माचरण किया है, इन सब के फलस्वरूप इस शरीर को छोड़ने पर मैं देव हो जाऊँ, सब प्रकार के काम-भोग मेरे अधीन हो जाएँ, अणिमा आदि सिद्धियाँ मेरे आगे हाथ जोड़े खड़ी हों, मैं सभी दुःखों और अशुभ फलों से बच जाऊँ । मुनि इस प्रकार की कोई आकांक्षा या कामना न करे, क्योंकि तपश्चर्या से कदाचित् कोई कामना पूर्ण होती है, कोई नहीं भी होती । ऐसा कोई नियम नहीं है कि तपस्या से प्रत्येक कामना पूरी हो ही जाए। अतः भिक्षु को अपने मन-वचन-काया पर नियन्त्रण रखना चाहिए। जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्त न हो, वही सुसंयमी साधु है। सच्चे साधु इहलोक-परलोक के सुखों की तृष्णा से रहित परम वैराग्यसम्पन्न होते हैं। वही साधु महान् कर्मबन्धों से निवृत्त हो जाते हैं, शुद्ध संयम पालन में उद्यत रहते हैं और पापों से विरत हो जाते हैं । ऐसे सुसंयमी साधु चाहे जिस देश में विचरण करते हों, वे वहाँ की जनता के कल्याण के लिए अहिंसादि धर्म का उपदेश देते हैं। वे सावद्य-निरवद्य का विभाग करके धर्म के सम्बन्ध में प्रेरणा करते हैं। जनता के निर्दोष धर्म और उसके फल की प्ररूपणा करते हैं, वे समस्त प्राणियों का हितचिन्तन करके शान्ति, विरति, उपशम, वैराग्य, निर्वाण, शौच, आर्जव, मार्दव, लाघव, अहिंसा आदि धर्मों के विषय में प्रवचन करते हैं । उनके उपदेश को सुनकर कोई श्रोता धर्माचरण में उद्यत हो या न हो, वे कल्याणकारी उपदेश ही देते हैं । वे अपना धर्मोपदेश स्वादिष्ट भोजन, श्रेष्ठ पेय पदार्थ, बढ़िया वस्त्र, उत्तम मकान एवं शयनादि सामग्री तथा अन्य किसी भी प्रकार के कामभोग के साधनों को प्राप्त करने के लिए नहीं करते। ऐसे महान् पुरुष और ऐसे महान् पुरुषों से शुद्ध धर्म का श्रवण-मनन एवं हृदयंगम करके कर्मविदारण में समर्थ वीर पुरुष दीक्षित होकर आर्हत धर्म में उद्यत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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