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________________ ६७ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक सर्वेषां प्राणानां सर्वेषां भूतानां यावत् सत्त्वानामनुविचिन्त्य कीर्तयेद् धर्मम् । स भिक्षुः धर्मकीर्तयन् नो अन्नस्य हेतोः धर्ममाचक्षीत, नो पानकस्य हेतोः धर्ममाचक्षीत, नो वस्त्रस्य हेतोः धर्ममाचक्षीत, नो लयनस्य हेतोः धर्ममाचक्षीत, नो शयनस्यहेतोः धर्ममाचक्षीत, नो अन्येषां विरूपरूपाणां कामभोगानां हेतूनां धर्ममाचक्षीत, अग्लानो धर्ममाचक्षीत, नान्यत्र कर्मनिर्जरार्थाय धर्ममाचक्षीत । इह खलु तस्य भिक्षोरन्तिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य सम्यगुत्थानेनोत्थाय वीराः अस्मिन् धर्मे समुत्थिताः । ये एवं सर्वोपगताः, ते एवं सर्वोपरताः, ते एवं सर्वोपशान्ताः, ते एवं सर्वात्मतया परिनिवत्ता इति ब्रवीमि । एवं स भिक्षुः धर्मार्थी धर्मवित् नियागप्रतिपन्नः, तद् यथेदमुक्तम् । अथवा प्राप्तः पद्मवरपुण्डरीकम् अथवा अप्राप्तः पद्मवरपुण्डरीकम् एवं स भिक्षुः परिज्ञातकर्मा परिज्ञातसंगः परिज्ञातगृहवासः उपशान्तः समितः सहित: सदा यतः स एवं वचनीयः तद्यथा-श्रमण इति वा, माहन इति वा, क्षान्त इति वा, दान्त इति वा, गुप्त इति वा, मुक्त इति वा, ऋषिरिति वा, मुनिरिति वा, कृती इति वा, विद्वान् इति वा, भिक्षुरिति वा, रूक्ष इति वा, तीरार्थी इति वा, चरणकरणपारविद् इति वा। इति ब्रवीमि ॥ सू० १५ ।। अन्वयार्थ (तत्थ खलु भगवया छज्जीवनिकायहेऊ पण्णत्ता) भगवान् श्री अर्हन्तदेव ने छह काय के जीवों को कर्मबन्ध का कारण कहा है (तं जहा-पुढवीकाए जाव तसकाए) पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक ६ प्रकार के जीव कर्मबन्ध के कारण हैं। (से जहाणामए दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलूण वा कवालेण वा आउटिज्जमाणस्स वा हम्ममाणस्स वा) मान लो जैसे कोई व्यक्ति मुझे डंडे से, हड्डी से, मुक्के से, ढेले या पत्थर से अथवा घड़े के फूटे हुए ठीकरे आदि से मारता है, अथवा चाबुक आदि से पीटता है। (तज्जिज्जमाणस्स) या अँगुली दिखाकर धमकाता है, या डाँटताफटकारता है, (ताडिज्जमाणस्स) अथवा ताड़न करता है; (परियाविज्जमाणस्स) अथवा सताता है, (किलामिज्जमाणस्स) या क्लेश देता है, (उद्दविज्जमाणस्स) उद्विग्न करता है, डराता है या उपद्रव करता है, तो (मम असायं) मुझे दुःख होता है, (जाव लोमुक्खणणमायमवि हिंसाकारगं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि) यहाँ तक कि अगर कोई मेरा एक रोम भी उखाड़ देता है तो मुझे मारने जैसा दु:ख और भय होता है, (इच्चेवं जाण सम्वे जीवा सव्वे भूता सव्वे पाणा सव्वे सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा आउट्टिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा) इसी तरह सभी जीव, सभी भूत, सभी प्राणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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