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________________ सूत्रकृतांग सूत्र आदि कामभोग के साधन या ज्ञातिजन उक्त प्रार्थना को सुनकर दुःख से छुड़ाने, रक्षा करने या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। (पुरिसे वा एगया पुदिव कामभोगे विप्पजहालि) कभी तो इन कामभोगों का उपभोग करने वाला पुरुष पहले ही इन (धन, धान्य, क्षेत्रादि) पदार्थों को छोड़कर चल देता है यानी परलोक चला जाता है, (कामभोगा वा एगया पुरिसं विप्पजहंति) अथवा कामभोग के ये साधन (धन, धान्य क्षेत्र आदि) कभी पहले ही पुरुष को छोड़कर चल देते हैं, (अन्ने खलु कामभोगा, अन्नो अहमंसि) अतः धन-धान्यादि सम्पत्ति या ये कामभोग भिन्न हैं, मैं इनसे भिन्न हूँ (से किमंग पुण वयं कामभोहिं मुच्छामो) फिर हम क्यों अपने से भिन्न इन कामभोगों (धन-धान्यादि साधनों या ज्ञाति जन आदि) में मूच्छित-आसक्त हों ? (इति संखाए वयं कामभोहि विप्पजाहिस्सामो) इसलिए इन सबका ऐसा स्वरूप जानकर अब हम इन कामभोगों का अवश्य त्याग कर देंगे। (से मेहावी जाणेज्जा बहिरंगमेयं) इस प्रकार वस्तुस्वरूपज्ञ वह बुद्धिमान् साधक निश्चित रूप से जान ले कि ये सब सांसारिक कामभोग आदि पदार्थ बहिरंग-बाह्य हैं--मेरे आत्मा से भिन्न हैं। (इणमेव उवणीय तरागं) इनसे तो मेरे निकट सम्बन्धी ये लोग हैं- (माया मे पिया मे भाया मे भगिणी मे भज्जा मे पुत्ता मे धूया मे पेसा मे नत्ता मे सुण्हा मे सहा मे सयणसग्गंथसंथुआ मे) मेरी माता है, मेरे पिता हैं, मेरे भाई हैं, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है. मेरे पुत्र हैं, मेरी पुत्री है, मेरे दास (नौकर) हैं, मेरा नाती है, मेरी पुत्रवधू है, मेरा मित्र है, मेरे पहले और पीछे के स्वजन परिचित सम्बन्धी हैं, (एए मम णायओ, अहमवि एएस) ये मेरे ज्ञातिजन हैं, और मैं भी इनका आत्मीय हूँ, (एवं से मेहावी पुवामेव अप्पणा एवं समभिजाणेज्जा) परन्तु बुद्धिमान पुरुष को पहले से ही स्वयमेव इस प्रकार विचार कर लेना चाहिए कि (इह खलु मय अन्नयरे दुक्खे रोयातके वा समुपज्जेजा अणिढे जाव नो सुहे) जब कभी मुझे इस प्रकार का कोई दुःख या कोई रोग-आतंक पैदा हो, जो अनिष्ट और दुःखदायी हैं, (से हंता भयंतारो णायओ इमं मम अन्नयरं दुक्खं रोयातंक अणिठं जाव णो सुहं परियाइयह) उस समय मैं अपने ज्ञातिवर्ग से यह कहूँ कि हे भय से रक्षा करने वाले ज्ञातिवर्ग ! मेरे इस अनिष्ट तथा अप्रिय दु:ख तथा रोगातंक को आप लोग बांटकर ले लें, (ताऽहं दुक्खामि वा सोयामि वा जाव परितप्पामि वा) जिनसे कि मैं इस दुःख से पीड़ित हो रहा हूँ, मैं अत्यन्त चिन्तित हूँ, बहुत संतप्त हूँ, (इमाओ मे अन्नयराओ दुक्खाओ रोयातकाओ परिमोएह अनिट्ठाओ जाव णो सुहाओ) अत: आप सब मुझे इस अनिष्ट दुःख तथा दुःखद रोग से मुक्त कर दें, (एवमेव णो लद्धपुत्वं भवइ) वे ज्ञातिजन इस प्रार्थना को सुनकर दुःख तथा रोग को बाँटकर ले लें या मुझे दुःख या रोग से मुक्त कर दें, ऐसा कभी नहीं होता। (तेसि वा वि मम भयंतारांणं णाययाणं अन्नयरे दुक्खे रोयातके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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