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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक दिशा के वर्णन से लेकर सेनापतिपुत्र तक का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए, (तेसि च णं एगइए सड्ढी भवइ) पूर्वोक्त राजा तथा उसके सभासदों में से कोई एकाध पुरुष ही धर्म श्रद्धालु होता है। (कामं तं गमणाए समणा य माहणा य संपहारिसु) उसे धर्मश्रद्धालु जानकर उसके निकट (धर्मोपदेशार्थ) जाने का श्रमण और माहन निश्चय करते हैं । (जाव मए एस सुयक्खाए धम्मे सुपन्नत्ते भवइ) वे उसके पास जाकर कहते हैं-मैं आपको सच्चे धर्म का उपदेश करता हूँ, उसे आप सावधान होकर सुनिए। (इह खलु दुवे पुरिसा भवंति) इस लोक में दो प्रकार के पुरुष होते हैं । (एगे पुरिसे किरियमाइक्खइ) एक पुरुष क्रिया का कथन करता है, (एगे पुरिसे णो किरियमाइक्खइ) जबकि दूसरा पुरुष क्रिया का कथन नहीं करता, अर्थात् क्रिया का निषेध करता है। (जे य पुरिसे किरियमाइक्खइ, जे य पुरिसे णो किरियमाइक्खइ दो वि ते तुल्ला एगट्ठाकारणमावन्ना) जो पुरुष क्रिया का कथन करता है और जो पुरुष क्रिया का निषेध करता है, वे दोनों ही समान हैं, तथा वे दोनों एक अर्थ वाले और एक कारण को प्राप्त हैं। (बाले) वे दोनों ही मुर्ख हैं। (कारणमावन्ने एवं विप्पडिवेदेति) वे अपने सुख-दुःख के कारण काल, कर्म तथा ईश्वर आदि को मानते हुए यह समझते हैं कि (अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा अहमेयमकासी) मैं जो दुःख भोग रहा हूँ, शोक पा रहा हूँ, दुःख से आत्मगर्हा (पश्चात्ताप) कर रहा हूँ, या शारीरिक बल का नाश कर रहा हूँ या पीड़ा पा रहा हूँ या संतप्त हो रहा हूँ ये सब मेरे कर्मों के फल हैं । तथा (परो वा जं दुक्खइ वा सोयइ वा जूरइ वा तिप्पइ वा पीडइ वा परितप्पइ वा परो एवमकासि) दूसरा जो दुःख भोगता है, शोक करता है, आत्मनिन्दा करता है, शारीरिक बल का क्षय करता है, पीड़ित होता है, या संतप्त होता है, वे सब उसके कर्म के फल हैं। (एवं कारणमावन्ने से बाले सकारणं वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेति) इस प्रकार वह अज्ञजीव काल, कर्म, ईश्वर आदि को सुख-दुःख का कारण मानता हुआ अपने तथा दूसरे के दुःख-सुख को अपने तथा दूसरे के द्वारा किये हुए कर्मों का फल समझता है। (कारणमावन्ने मेहावी पुण एवं विप्पडिवेदेति) परन्तु एकमात्र नियति को ही समस्त पदार्थों का कारण मानने वाला बुद्धिमान पुरुष तो यह समझता है कि (अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जुरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा णो अहमेवमकासि) मैं जो दुःख भोगता हूँ, शोकमग्न होता हूँ, आत्मनिन्दा करता हूँ, शारीरिक बल नष्ट करता हूँ, पीड़ित होता हूँ, संतप्त होता हूं, ये सब मेरे कर्मों के फल नहीं हैं, (परो वा जं दुक्खइ वा जाव परितप्पइ वा णो परो एवमकासी) तथा दूसरा पुरुष जो दु:ख पाता है शोक आदि से संतप्त, पीड़ित होता है, वह भी उसके कर्म का फल नहीं है, किन्तु यह सब नियति का प्रभाव है। (एवं से मेहावी सकारणं वा परकारणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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