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प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक
से प्राणियों को क्रिया में प्रवृत्त करता है अथवा किसी दूसरे की प्रेरणा से करता है ? यदि वह अपनी इच्छा से ही प्राणियों को क्रिया में प्रवृत्त करता है तो प्राणी अपनी इच्छा से ही क्रिया में प्रवृत्त होते हैं, यही क्यों न मान लिया जाय ? यदि वह ईश्वर किसी दूसरे की प्रेरणा से प्राणियों को क्रिया में प्रवृत्त करता है तो जिसकी प्रेरणा से वह प्राणियों को क्रिया में प्रवृत्त करता है, उसको भी प्रेरणा करने वाला कोई तीसरा होना चाहिए, और उस तीसरे को चौथा, और चौथे को पाँचवाँ और पाँचवें को छठा इस प्रकार इस पक्ष में अनवस्था दोष आता है। अतः प्राणिवर्ग ईश्वर की प्रेरणा से क्रिया में प्रवृत्त होते हैं, यह पक्ष ठीक नहीं है।
ईश्वर सराग है या वीतराग ? यदि सराग है तो वह साधारण जीव के समान ही सष्टि का कर्ता नहीं हो सकता । यदि वीतराग है तो वह किसी को नरक के योग्य पापक्रिया में और किसी को स्वर्ग तथा मोक्ष के योग्य शुभक्रिया में क्यों प्रवृत्त करता है ? यदि कहें कि प्राणिवर्ग अपने पूर्वकृत शुभ और अशुभ कर्म के उदय से ही शुभ तया अशुभ क्रिया में प्रवृत्त होते हैं, ईश्वर तो निमित्त मात्र है, यह पक्ष भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि आपके मतानुसार पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों का उदय भी ईश्वर के ही अधीन है । अतः वह प्राणियों की शुभाशुभ क्रिया में प्रवृत्ति की जिम्मेदारी से बच नहीं सकता।
यदि यह मान लें कि प्राणी अपने पूर्वकृत कर्म के उदय से क्रिया में प्रवृत्त होते हैं, तो यह भी मानना पड़ेगा कि प्राणी जिस पूर्वकृत कर्म के उदय से क्रिया में प्रवृत्त होते हैं, वह पूर्वकृत कर्म भी अपने पूर्वकृत कर्म के उदय से ही हुआ था, तथा वह भी अपने पूर्वकृत कर्म के उदय से हुआ । इस प्रकार पूर्वकृत कर्म की परम्परा अनादि सिद्ध होती है । इस प्रकार ईश्वर मानने पर भी जब पूर्वकृत कर्म-परम्परा अनादि सिद्ध होती है, तथा वही प्राणी की क्रिया में प्रवृत्ति का कारण भी ठहरती है, तब फिर व्यर्थ ही ईश्वर को कारण मानने की क्या आवश्यकता है ?
जिसके सम्बन्ध से जिसकी उत्पत्ति होती है, वही उसका कारण माना जाता है, दूसरा नहीं । मनुष्य का घाव शस्त्र और औषधि के प्रयोग से अच्छा होता है, इसलिए शस्त्र और औषधि ही घाव भरने के कारण माने जाते हैं। परन्तु उस घाव के साथ जिसका कोई सम्बन्ध नहीं है, उस ढूंठ को घाव भरने का कारण नहीं माना जाता। अतः पूर्वकृत कर्म के उदय से ही प्राणियों की शुभाशुभ क्रिया में प्रवृत्ति सिद्ध होने पर उसके लिए ईश्वर को कारण मानने की कोई आवश्यकता नहीं है।
ईश्वरकर्तृत्ववादियों का यह कथन भी ईश्वर के कर्ता होने का साधक नहीं है कि शरीर और जगत् विशिष्ट अवयव रचना से युक्त होने के कारण किसी बुद्धिमान् कर्ता द्वारा रचित हैं, क्योंकि इस अनुमान से बुद्धिमान् कर्ता की सिद्धि होती है, ईश्वररूप कर्ता की सिद्धि नहीं होती। जो बुद्धिमान होता है, वह ईश्वर ही होता है, ऐसा
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