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सूत्रकृतांग सूत्र
दृष्टान्तों को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि जैसे फोड़े आदि पदार्थ शरीर आदि से उत्पन्न होते हैं, शरीर आदि में ही उनकी विकास-प्रवृत्ति या वृद्धि होती है, शरीर आदि का ही वे अनुगमन करते हैं और अन्त में शरीर आदि में ही व्याप्त होकर या शरीर आदि के आधार पर टिकते हैं, इसी प्रकार समस्त पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न होते हैं, ईश्वर में ही बढ़ते हैं और ईश्वर को ही आधार बनाकर स्थित रहते हैं। तात्पर्य यह है कि जगत् के समस्त पदार्थ ईश्वर से ही उत्पन्न हुए हैं, ईश्वर में ही स्थित हैं और अन्त में ईश्वर में ही लीन हो जाते हैं। __ईश्वरकारणवादी और आत्माद्वैतवादी ये दोनों ही तीसरे पुरुष में ग्रहण किये गये हैं । इन दोनों का कथन है कि 'आचारांग से लेकर दृष्टिवाद तक जो श्रमणनिर्ग्रन्थों का द्वादशांगी गणिपिटक (जैनागम) है, वह मिथ्या है, क्योंकि वह ईश्वर द्वारा रचित नहीं हैं, किन्तु किसी साधारण व्यक्ति द्वारा निर्मित और विपरीत अर्थ का बोधक है, इसलिए यह सत्य नहीं है, और न ही वस्तुस्वरूप का प्रतिपादक है।' इस प्रकार आर्हद्दर्शन की निन्दा करने वाले ईश्वरकारणवादी और आत्माद्वैतवादी दोनों अपनेअपने मतों का आग्रह रखते हुए अपने मत की शिक्षा अपने शिष्यों को देते हैं तथा द्रव्योपार्जनार्थ अनेक प्रकार के पापकर्म करके उनके फलस्वरूप नाना प्रकार के दुःख पाते हैं। इसके अतिरिक्त निर्दोष शास्त्रों की निन्दा करने और उनसे विपरीत कुशास्त्र प्रतिपादित जीवहिंसा आदि कुकृत्य करने के कारण उत्पन्न होने वाले अशुभबन्धनों को नष्ट करने में असमर्थ होकर वे संसार-चक्र में ही परिभ्रमण करते रहते हैं । जैसे पक्षी पिंजरे के बन्धन को तोड़ नहीं सकता, वैसे ही वे वादी भी संसार-चक्र का उल्लंघन नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वे अपने द्वारा-उपार्जित अशुभ कर्मों से बँधे हुए हैं । वे मोक्षमार्ग को स्वीकार नहीं करते । उनका मन्तव्य है कि न क्रिया है, न अक्रिया है, यहाँ तक कि न नरक हैं, न नरक के अतिरिक्त कोई और लोक है-अर्थात् स्वर्ग आदि अनरक हैं । न पुण्य-पाप है; न शुभाशुभ कर्म का फल है; न कोई भला है, न बुरा; न सिद्धि है, न असिद्धि; न सुकृत है, न दुष्कृत है।
इस प्रकार वे लोग त्याग-वैराग्य की थोथी बातें करते हैं, किन्तु उनकी श्रद्धा की नींव कच्ची होती है, इस कारण वे विषय-भोगों में अत्यन्त आसक्त होकर उन्हें पाने के लिए दम्भपूर्वक पापाचरण करते हैं। वे अनार्य हैं। वे विपरीत पथ को ग्रहण किये हुए हैं । इस कारण वे न तो इस लोक के होते हैं और न परलोक के ही होते हैं, किन्तु बीच में ही वे दुनियादारी में रचे-पचे रहकर सांसारिक विषयभोगों के कीचड़ में ही फंस जाते हैं और नाना प्रकार के कष्ट पाते हैं ।
वास्तव में जो लोग ईश्वर या आत्मा को जगत् का कर्ता मानते हैं, वह सर्वथा मिथ्या है, अनुभव से बाधित है। क्योंकि प्रश्न होता है-वह ईश्वर अपनी इच्छा
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