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सूत्रकृतांग सूत्र
व्याख्या संशयातीत सर्ववस्तुतत्त्वनिरूपक अन्य दर्शनों में नहीं
जो पुरुष चार घातीकर्मों को नष्ट कर चुका है, वह सब प्रकार के संशयों को दूर कर देता है। विचिकित्सा चित्त की अस्थिरता या संशयात्मक ज्ञान को कहते हैं। विचिकित्सा को दूर करनेवाला महापुरुष संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय का भी विनाशक होता है। और ऐसा महापुरुष नि:संशयज्ञान से सम्पन्न होता है ।
आशय यह है कि जो पुरुष संशयादि के कारणभूत चार घातीकर्मों का क्षय कर देता है, उसमें संशय या विपर्ययरूप मिथ्याज्ञान नहीं होता। ऐसा पुरुष अनन्यसदृशदर्शी होता है, अर्थात् उसके समान वही होता है, अन्य कोई नहीं, जो सूक्ष्म, बादर आदि अनन्तधर्मात्मक पदार्थों को जान सके, वह परस्पर मिले हुए सामान्य विशेषात्मक पदार्थों को जानता है। क्योंकि 'सर्वज्ञ पुरुष का एक ही ज्ञान अचित्यशक्ति से युक्त होने के कारण वस्तु के सामान्य-विशेष दोनों का निश्चय करता है।
इस सम्बन्ध में मीमांसक यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि सर्वज्ञादि सब पदार्थों के ज्ञाता हैं तो उनको स्पर्श आदि का ज्ञान बना रहने से अनभिमत वस्तु के रसास्वाद का भी ज्ञान होना चाहिए। किन्तु यह कथन यथार्थ नहीं है, क्योंकि सर्वज्ञ का ज्ञान इतरजनों (छद्मस्थों) के ज्ञान के समान नहीं होता। सर्वज्ञ पुरुष वस्तु के अनन्त अतीत एवं अनागत पर्यायों को तथा अनन्त धर्मों को युगपत् जानते हैं, जबकि दूसरों का ज्ञान इस प्रकार का नहीं होता। स्पर्श के ज्ञानमात्र से स्पर्श की अनुभूति होती है, यह कथन प्रत्यक्ष प्रमाण विरुद्ध है। फिर सर्वज्ञ वीतराग होते हैं, उन्हें कोई रस न इष्ट होता है, न अनिष्ट । वे सब पदार्थों को मध्यस्थ भाव से ही जानते हैं।
मीमांसक आक्षेप करते हैं कि सामान्य रूप से सर्वज्ञ की सिद्धि हो जाने पर भी महाबीर आदि अर्हन्त (तीर्थंकर) ही सर्वज्ञ हैं, बुद्ध या कपिल नहीं, इसमें क्या प्रमाण है ? यदि दोनों ही सर्वज्ञ हैं तो इनमें मतभेद क्यों है।'
इस आक्षेप का परिहार करने के लिए शास्त्रकार कहते हैं---'अणेलिसस्स अक्खाया' अर्थात् जो पुरुष अनन्यसदृश (अनुपम) धर्म का प्रतिपादक है, वह बौद्ध आदि दर्शनों में नहीं है, क्योंकि वे द्रव्य और पर्याय दोनों को यथार्थरूप से नहीं मानते । बौद्ध केवल पर्यायों को ही मानते हैं, द्रव्य को नहीं; क्योंकि वे सभी पदार्थों को क्षणिक कहते हैं। मगर यह तो हर कोई जानता है कि द्रव्य के बिना निर्बीज
१. अर्हन् यदि सर्वज्ञो, बुद्धो नेत्यत्र का प्रमा?
अथातपि सर्वज्ञौ, मतभेदस्तयोः कथम् ?
-मीमांसा
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