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सूत्रकृतांग सूत्र
कड़ियाँ एक समान हैं । अथवा इस अध्ययन में अन्त और आदि पद का संकलन हुआ है, इसलिए इसका नाम 'संकलिका' है।
___ अथवा इस अध्ययन का आदि शब्द 'जं अतीतं' है, इसलिए इसका नाम जमतीत है । अथवा इस अध्ययन में यमक अलंकार का प्रयोग हुआ है, इसलिए इस अध्ययन का नाम यमकीय है, जिसका आर्ष प्राकृतरूप 'जमईय' है। नियुक्तिकार ने इस अध्ययन का नाम आदान या आदानीय ही बताया है । दूसरे दो नाम वृत्तिकार ने बताये हैं। निक्षेप दृष्टि से आदान शब्द के अर्थ
कार्यार्थी पुरुष जिस वस्तु को ग्रहण करता है, अथवा जिसके द्वारा अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति होती है, उसे आदान कहते हैं। वैसे आदान का अर्थ ग्रहण करना होता है । इसके चार निक्षेप होते हैं। नाम और स्थापना को छोड़कर द्रव्य-आदान
और भाव-आदान को समझ लेना चाहिए। द्रव्य-आदान धन के ग्रहण करने को कहते हैं, क्योंकि संसारी मनुष्य दूसरे सब कार्यों को छोड़कर सर्वप्रथम बड़े क्लेश से धन को ग्रहण करते हैं । अथवा उस धन के द्वारा द्विपद-चतुष्पद आदि को ग्रहण करते हैं । इसलिए धन को द्रव्य-आदान कहते हैं। भाव-आदान दो प्रकार का हैप्रशस्त और अप्रशस्त । क्रोध आदि का उदय होना अथवा मिथ्यात्व अविरति आदि कर्मबन्ध के आदान रूप होने से अप्रशस्त भावादान है । तथा उत्तरोत्तर गुणश्रेणी के द्वारा विशुद्ध अध्यवसाय को ग्रहण करना अथवा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को ग्रहण करना प्रशस्त भावादान है। इस अध्ययन में इसी प्रशस्त भावादान का निरूपण है ।
इसी प्रशस्त भावादान के सन्दर्भ में इस अध्ययन की क्रमप्राप्त प्रथम गाथा इस प्रकार है
मूल पाठ जमतीतं पडुपन्नं, आगमिस्सं च णायओ । सव्वं मन्नंति तं ताई, दंसणावरणंतए ॥१॥
संस्कृत छाया यदतीतं प्रत्युत्पन्नमागमिष्यच्च नायकः । सर्व मन्यते तत् त्रायी दर्शनावरणान्तकः ।।१।।
अन्वयार्थ (जमतीतं) जो पदार्थ हो चुके हैं, (पडुपन्न) जो पदार्थ वर्तमान में विद्यमान हैं, और (आगमिस्सं च) जो पदार्थ भविष्य में होने वाले हैं, (तं सव्वं) उन सबको (दसणावरणंतए ताई गायओ) दर्शनावरणीयकर्म का सम्पूर्ण रूप से अन्त करनेवाले, जीवों के त्राता- रक्षक, धर्मनायक तीर्थकर (मन्नति) जानते हैं।
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