________________
५४
सूत्रकृतांग सूत्र
णस्थि, ण णिच्चो, ण कुणइ, कथं ण वेएइ, णस्थि णित्वाणं ।
पत्थि पमोक्खोवाओ, छं मिच्छत्तस्स ठाणाइ ।
अर्थात्---आत्मा नहीं है, आत्मा नित्य नहीं है, आत्मा कर्ता नहीं है, आत्मा किसी भी कर्म का भोक्ता नहीं है, मोक्ष नहीं है. मोक्ष का उपाय नहीं है, इस प्रकार ये ६ मिथ्यात्व के स्थान हैं ।
मिथ्यात्व के पूर्वोक्त लक्षण, प्रकार, स्थान और कारणों की कसौटी पर जब हम उन-उन पर-सिद्धान्तों को कसते हैं, जांचते और परखते हैं तो यह बात हस्तामलकवत् स्पष्ट प्रतीत हो जाती है कि ये परसमय या परसमय के प्रवर्तक मिथ्यात्व से कितने ग्रस्त हैं ? सर्वप्रथम बौद्धमत को लीजिए । बौद्धमत में चार आर्य सत्य माने जाते हैं-दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग । तथागत बुद्ध इन चार आर्य सत्यों के आद्य उपदेष्टा हैं । रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान २ ये पाँच विपाकरूप उपादान-स्कन्ध ही दुख हैं। जिससे पंचस्कन्ध रूप दुख उत्पन्न होता है, उसे समुदय कहते हैं । ये ही पाँच स्कन्ध तृष्णा के सहकार से जब नवीन स्कन्धों की उत्पत्ति में हेतु होते हैं, तब समुदय कहलाते हैं । संसार रूपी चारक (कैदखाने) का अभाव ही यहाँ निरोध है । इस कारण दुःख का निर्गमन या अनुत्पत्ति ही दुःख का निरोध कहलाता है । निरोध में हेतुभूत नैरात्म्यादि भावना रूप में परिणत चित्त विशेष ही मार्ग कहलाता है ।
सचेतन-अचेतन परमाणुओं के प्रचय को स्कन्ध कहते हैं। इन पाँच स्कन्धों से भिन्न आत्मा नाम का कोई छठा स्कन्ध नहीं है। अर्थात् नाम-रूपात्मक इन्हीं पाँच स्कन्धों में आत्मा का व्यवहार होता है। ये ही पाँच स्कन्ध एक स्थान से दूसरे स्थान को तथा एक भव से भवान्तर को जाते हैं। अतः संसरणधर्मा होने से संसारी है । इन विज्ञानादि पंच स्कन्धों से अतिरिक्त सुख, दुःख, इच्छा, द्वष, ज्ञान आदि का आधारभूत आत्मा नामक कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। न तो पंच स्कन्धों से भिन्न आत्मा का प्रत्यक्ष से ही अनुभव होता है, और न आत्मा के साथ
१. इमानि वो भिक्खवे अरियसच्चानि तथानि अवितथाति अविसंवादकानि .......
-विसुद्धि १६।२०-२२ २ संखित्तेन पंच्चूपादान खंधापि दुक्खानि ।
---विसुद्धि ० १६१५७ ३. नात्माऽस्ति, स्कन्धमात्र तु क्लेशकर्माभि संस्कृतम् । अन्तरा भवसन्तत्या कुक्षिमेति प्रदीपवत् ।।
—अभिधम्मत्थ० ३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org