SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 983
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९३८ सूत्रकृतांग सूत्र रक्षा करे । इस प्रकार जो साधक अपनी तथा दूसरे की रक्षा करता है, समिति-गुप्ति आदिरूप समाधिमार्ग में अच्छी तरह स्थित हो जाता है, उसके दिलदिमाग में या तन-मन-नयन में समाधिमार्ग अच्छी तरह रम जाता है, तब उसे शान्ति प्राप्त होती है, उसके तमाम द्वन्द्व छूट जाते हैं, सम्पूर्ण दुःखों का क्षय हो जाता है। इस प्रकार की अनुभूतियुक्त बातें ये ही कह सकते हैं, जिनका इतना उत्कृष्ट अनुभव हो गया हो। इसके सम्बन्ध में शास्त्र कार कहते हैं ---'ते एवमखंति तिलोगदंसी।' अर्थात् ऊँची, नीची, तिरछी सभी दिशाओं में स्थित पदार्थों को जो हस्तामलकवत् जानतेदेखते हैं, वे त्रिलोकदर्शी सर्वज्ञ पुरुष पूर्वोक्त परमानन्द की अनुभूति साक्षी देते हैं। इसलिए शास्त्रकार शैक्ष-साधक से कहते हैं- अब तक जो कुछ हुआ सो हुआ, अब भविष्य में कभी प्रमाद का संग न करना, अन्यथा यह सुनहरा अवसर हाथ से चला जाएगा। आगे शास्त्रकार कहते हैं-- गुरुकुलवासी साधक मोक्षगमनयोग्य साधु के आचार-विचार को सुनकर तथा अपने इष्ट-अर्थ----मोक्ष पुरुषार्थ को हृदयंगम करके हेय-ज्ञेय-उपादेय को भली-भाँति जान करके गुरुकुल में रहने के कारण प्रतिभावान हो जाता है तथा वह साधु-सिद्धान्त एवं मोक्षमार्ग का इतना उच्च कोटि का ज्ञाता एवं वक्ता हो जाता है कि किसी भी पदार्थ के वस्तुस्वरूप को बताने में यह हिचकता नहीं । वह गुरुकुल में मोक्षार्थी पुरुप के द्वारा ग्रहण करने (आदान) योग्य सम्यग्ज्ञानादि से ही वास्ता रखता है, इसलिए वह बारह प्रकार के तप तथा आस्रवनिरोधरूप संवर-संयम की ग्रहण एवं आसेवना शिक्षा (प्रशिक्षण) पाकर इन दोनों में पर्याप्त अभ्यस्त हो जाता है । साथ ही वह उद्गमादि दोषों से रहित शुद्ध आहार या शुद्ध आचार से अपना जीवनयापन करता हुआ साधु समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । कहीं-कहीं 'न उवेइ मारं पाठ मिलता है, जिसका अर्थ है-ऐसा शुद्ध मार्गचारी साधु बार-बार मार-मृत्यु (जन्म-मरण) अथवा जिसमें प्राणिवर्ग स्वकर्मवश बार-बार मरते हैं, वह संसार प्राप्त नहीं करता। सम्यक्त्व को न त्यागने वाला साधक ७-८ भव तक ही जन्म-मरण प्राप्त करता है, उसके बाद नहीं । मूल पाठ संखाइ धम्मं च वियागरंति, बुद्धा हु ते अंतकरा भवति । ते पारगा दोण्ह वि मोयणाए, संसोधियं पण्हमुदाहरंति ॥१८॥ णो छायए णोऽवि य लूसएज्जा, माणं ण सेवेज्ज पगासणं च । ण यावि पन्ने परिहास कुज्जा, ण याऽऽसियावाय वियागरेज्जा ॥१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003599
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1979
Total Pages1042
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy