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समवसरण : बारहवाँ अध्ययन
व्याख्या
यथार्थ क्रियावाद का प्ररूपक कौन और कैसे ?
१८वी गाथा से लेकर २१वीं गाथा तक यथार्थ क्रियावाद के प्ररूपक की योग्यता, क्षमता एवं निष्ठा के सम्बन्ध में बताया गया है ।
जो व्यक्ति क्रियावादी है यानी दर्शन -ज्ञानपूर्वक चारित्र को मानता है, वह आत्मा, अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष को अवश्य मानेगा | वह सभी प्राणियों को आत्मतुल्य मानकर उनके स्वभाव, गति, स्थिति आदि को भी जानेगा, अहिंसा आदि पाँचों महाव्रतों तथा ५ समिति, ३ गुप्ति एवं अन्य उत्तरगुणों का सम्यक् परिपालन करेगा। यही बात १८वीं से लेकर २१वीं गाथाओं तक संक्षेप में बताई है। जो साधक क्रियावादी होता है, वह आत्मवादी या लोकवादी अवश्य होगा। यानी वह प्रत्येक आत्मा के सुख-दुःख आदि के विषय में जानकर समभाव रखेगा, उनकी रक्षा का ध्यान रखेगा । तत्त्वदर्शी पुरुष समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य समझेगा | चाहे वह प्राणी लघुकाय हो या महाकाय हो, यही उसका प्राणियों के प्रति विनय है, ऐसा सर्वभूतात्मभूत तत्त्वदर्शी पुरुष यही समझता है कि जिस प्रकार मुझे दुःख अप्रिय है, उसी प्रकार सभी प्राणियों को है । इसलिए वह किसी भी प्राणी के साथ प्रतिकूल व्यवहार नहीं करेगा । कहा भी है
प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा:, भूतानामपि ते तथा । आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पश्यति ॥ जैसे स्वयं को अपने प्राण प्रिय हैं, वैसे ही अन्य प्राणियों को भी अपने प्राण उतने ही प्रिय हैं । अतः समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है, वास्तव में वही द्रष्टा है । साथ ही शास्त्रकार ने साधक के लिए कहा है – 'उब्वेहती लोग मिण महंतं । वह जिस समय भी धर्म- जागरण करे, उस समय इस विशाल लोक का अनुप्रेक्षण करे | लोक महान् इसलिए है कि एक तो यह षड्कायिक जीवों के सूक्ष्मबादर भेदों से खचाखच भरा हुआ है । दूसरे काल और भाव से यह अनादि-अनन्त होने के कारण महान् है । तीसरे, यह लोक द्रव्य से षद्रव्यात्मक एवं क्षेत्र से १४ रज्जु प्रमाण तथा अन्तरहित एवं अनन्त पर्याययुक्त होने से महान् लोक का उत्प्रेक्षण या चिन्तन कैसे करे ? इसके लिए वृत्तिकार कहते हैं कि वह तत्त्वदर्शी साधक यह सोचे कि इस लोक में सभी प्राणियों के स्थान अनित्य हैं, दुःखपूर्ण इस लोक में सुख का लेशमात्र भी नहीं है । शास्त्रकार में कहा हैंजम्मं दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारे तत्थ किस्संति जंतवो ॥
महान् है ।
अर्थात् - जन्म दुःखरूप है, बुढ़ापा दुःखरूप है, रोग और मृत्यु भी दुःखरूप हैं | आश्चर्य है कि इस दुःखरूप संसार में प्राणी नाना प्रकार के क्लेश पाता है ।
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