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सूत्रकृतांग सूत्र
अज्ञान कहते हैं, तब तो आपने दूसरे ज्ञान को ही कल्याण का साधन मान लिया, अज्ञानवाद कहाँ सिद्ध हुआ ? यदि प्रसज्यवृत्ति मानकर ज्ञान के अभाव को अज्ञान कहते हैं, तब तो ज्ञानाभाव अभावरूप होने से तुच्छ, रूपरहित एवं सर्वशक्तिरहित हुआ, वह क्योंकर कल्याणकर सिद्ध हो सकता है । ज्ञान कल्याण का साधन नहीं है, अज्ञान का अर्थ प्रसज्यवृत्ति से यह होता है तो वह प्रत्यक्ष से विरुद्ध है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान द्वारा पदार्थ के स्वरूप को जानकर प्रवृत्ति करने वाला कार्यार्थी पुरुष अपने कार्य की सिद्धि करता प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है । इसलिए ज्ञान को झुठलाया नहीं जा सकता।
___ अज्ञानवादी धर्मोपदेश में सर्वथा निपुण नहीं हैं, परन्तु अपने अनिपुण शिष्यों को जब वे धर्म का उपदेश देते हैं तो ज्ञान के द्वारा ही देते हैं। अज्ञानवादी अज्ञानवाद का आश्रय लेकर बिना विचार किये बोलते हैं, इसलिए मिथ्याभाषण की प्रवृत्ति तो उनमें सहज ही है। जिसमें ज्ञान ---- वास्तविक ज्ञान होगा, वह पुरुष विचारपूर्वक बोलता है, और सत्यभागण सदा विचार पर निर्भर है। इसलिए अज्ञानवाद अपने आप में एक मिथ्यावाद है, इससे कल्याण होना तो दूर रहा, उलटे नाना कर्मबन्धन होने से जीव दुःख ही पाता है ।
मूल पाठ सच्चं असच्चं इति चितयंता, असाहु साहुत्ति उदाहरंता । जेमे जणा वेणइया अणेगे, पुठावि भावं विणइंसु णाम ॥३॥ अणोवसंखा इति ते उदाहु, अद्वै स ओभासइ अम्ह एवं । लवावसंकी य अणागएहि, णो किरियमाहंसु अकिरियवाई ॥४॥
संस्कृत छाया सत्यमसत्यमिति चिन्तयित्वा, असाधु साध्वित्युदाहरन्तः । य इमे जना: वैनयिका अनेके, पृष्टा अपि भावं व्यनैषुर्नाम ॥३॥ अनुपसंख्यायेति ते उदाहृतवन्तः अर्थः स्वोऽवभासतेऽस्माकमेवम् । लवावशंकिनश्चानागतैर्नो, क्रियामाहुरक्रियावादिनः ।।४।।
अन्वयार्थ (सच्चं असच्चं इति चितयंता) जो सत्य है, उसे असत्य मानते हुए (असाहु साहुत्ति उदाहरंता) जो असाधु यानी अच्छा नहीं हैं, उसे साधु (अच्छा) बताते हुए (अणेगे जे इमा वेणइया जणा) जो ये बहुत से विनयवादी लोग हैं, (पुट्ठा विणइंसु भावं णाम) वे पूछने पर विनय को ही मोक्ष का साधन बताते हैं ॥३॥
(ते अणोवसंखा) वे विनयवादी वस्तुतत्त्व को न समझकर (इति उदाहु) ऐसा कहते हैं कि (स अट्ठे अम्ह एवं ओभासइ) अपने प्रयोजन की सिद्धि हमें इसी
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