________________
८५२
सूत्रकृतांग सूत्र
कर उनके नीचे ये सात भंग रखने चाहिए-(१) सत् (२) असत् (३) सदसत् (४) अवक्तव्य, (५) सदवक्तव्य, (६) असदवक्तव्य (७) और सदसद्-अवक्तव्य । जैसे----(१) जीव सत् है, यह कौन जानता है और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? (२) जीव असत् है, यह कौन जानता है, और जानने से भी क्या प्रयोजन है ? (३) जीव सदसत् है, यह कौन जानता है और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? (४) जीव अवक्तव्य है, यह कौन जानता है, और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? (५) जीव सद्-अवक्तव्य है, यह कौन जानता है, और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? (६) जीव असद्-अवक्तव्य है, यह कौन जानता है और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? (७) जीव सद्असद्-अवक्तव्य है, यह कौन जानता है और यह जानने से भी क्या प्रयोजन है ? इसी तरह शेष अजीव आदि में भी प्रत्येक में ७-७ भंग होते हैं । यो कुल मिलाकर EX ७ = ६३ भेद हुए। अन्य ४ भंग इस प्रकार हैं - (१) सती (विद्यमान) पदार्थ की उत्पत्ति कौन जानता है और जानने से भी क्या लाभ है ? (२) असती (अविद्यमान) पदार्थ की उत्पत्ति कौन जानता है और यह जानने से भी क्या लाभ है ? (३) सदसती (कुछ विद्यमान और कुछ अविद्यमान) पदार्थ की उत्पत्ति कौन जानता है और जानने से भी क्या लाभ है ? (४) अवक्तव्यभाव की उत्पत्ति कौन जानता है और इसे जानने से लाभ भी क्या है ? इन चार भेदों को पहले के ६३ में मिलाने से ६७ भेद अज्ञानवादियों के हुए।
विनयवादियों के ३२ भेद इस प्रकार हैं--(१) देवता, (२) राजा, (३) यति (४) ज्ञाति, (५) वृद्ध, (६) अधम, (७) माता और (८) पिता-इन आठों का, प्रत्येक का मन, वचन, काया और दान यों ४ प्रकार से विनय करना चाहिए। इस प्रकार ८ ४.४ =३२ भेद विनयवादियों के हुए।
इन मतों का अध्ययन करने से क्या लाभ होता है ? इस सम्बन्ध में नियुक्तिकार का मत यह है कि पूर्वोक्त मतवादियों ने स्वेच्छानुसार जो सिद्धान्त माना है, इस अध्ययन में गणधरों ने उनका निरूपण इसलिए किया है, कि उनके मत में जो परमार्थ है, उसका निर्णय किया जाय । इसीलिए गणधरों ने इस अध्ययन का नाम समवसरण रखा है। उनका समन्वयपूर्वक सम्मेलन करना ही इस अध्ययन का उद्देश्य है।
इनमें से क्रियावादी, जीव आदि को एकान्तरूप से सत् मानता है, तथा काल, स्वभाव, नियति, प्रारब्ध और पुरुषार्थ ये पाँचों वादी भी एकमात्र अपने-अपने काल आदि वाद को यथार्थ मानते हैं । इसलिए ये मिथ्याहृष्टि हैं । अगर क्रियावादी जीवादि को कथंचित् सत् कहें और काल, स्वभाव आदि को मानने वाले भी सिर्फ एक को न मानकर पाँचों कारणों को समवाय रूप से माने तो ये सम्यग्दृष्टि माने जा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org